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२३. परमार्थर्षिशतिः सचिन्तां न च सो ऽपि संप्रति करोस्यारमा प्रभु शक्तिमान
परिकचिङ्गवितात्र वेन च भषो ऽप्यालोषयते नषत् ॥ १४॥ 909) कर्मात्याला रिजकारणालाना शुनो
रास्मैकम्पविशुबयोधमिलयो निःशेषसंगोनिमतः । शश्वत्तदूतभावनाश्रितमना लोके वसन् संयमी
मावन स लिप्यते ऽसदलपत्तोयेन पनाकरे ॥ १५॥ 910) गुद्रिव्यवसमुक्तिपदधीमाप्त्यर्थनिर्माता
जातानन्नवशास्ममेन्द्रियसुखं दुःख मनो मन्यते । सस्वाद प्रतिभासते किल खलस्तावत्समासावितो
पावभो लिसशर्करातिमधुरा संतर्पिणी लभ्यते ॥ १३ ॥ 911) निन्यस्वमुवा ममोजवलतरध्यानाभितस्फीतया
दुनिाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथमस्थास्यपि स्यास्कुतः।
किंलक्षणः आत्मा प्रभुः । बलवता बोधादिमा ल्याजितः । तेन आत्मप्रभुणा । यत्किंचिदवितापि तविष्यति । तत्किम् । भवः संसारः। मष्टपत् विलोक्यते ॥ १४॥ स संसभी । लोके सन् तिन्छन् । भवद्येन पापेन म लिप्यते । किलक्षणः संयमी। कर्मक्षति-विमाश-उपशान्तिकारणवशात् । गुरोः सदेशनायाः गुरूपदेशात् । भात्मत्वविशुद्धबोधनिलयः। पुनः निःशेषसंग-परिग्रहरहितः । पुनः किलक्षणः संयमी । शश्वतद्रत-आत्मगत-भावनाश्रितमनाः । तत्र दृष्टान्तमाह । फ्याकरे सरोवरे । सोयेन जलेन । अम्मदलवत् कमलइलवत् ॥ १५॥ मम मनः इन्दियसुख दुःख मन्यते। कस्मात् । पुद्धिमतमुकिपदवीप्राप्त्यर्थनिप्रन्यताजातानन्दवशात् । किल इति सत्ये। तावत्कालं सलः पिण्याकखण्ड: लोके मिष्टः खलः । समासादितः प्रातः सुखायुः प्रतिभासवे यावत्काल सितशर्करा 'मिश्री' न लभ्यते । किंलक्षणा शर्करा । मतिमधुरा संतर्पिणी ॥ ११॥ निर्ग्रन्थत्वमुदा
मरा हुआ समझता है और उसकी कुछ भी चिन्ता नहीं करता है । बलि तब वह अपने संसारको नष्ट हुआ-सा समझने लाता है। तात्पर्य यह कि एकत्वबुद्धिके उत्पन्न हो जानेपर जीवको इन्द्रियविषयोंमें अनुराग नहीं रहता है । उस समय वह इन्द्रियों को नष्ट हुआ-सा मानकर मुक्तिको हाथमें आया ही समझता है ।। १४ ॥ जो संयमी कर्मके क्षय अथवा उपशमके कारण वश तथा गुरुके सदुपदेशसे आत्माकी एकताविषयक निर्मल झानका स्थान बन गया है, जिसने समस्त परिप्रहका परित्याग कर दिया है, तथा जिसका मन निरन्तर आत्माकी एकताकी भावनाके आश्रित रहता है। वह संयमी पुरुष लोकमें रहता हुआ भी इस प्रेकार पापस लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि तालाबमें स्थित कमलपत्र पानीसे लिप्स नहीं होता है ॥ १५ ॥ गुरुके चरणयुगलके द्वारा मुक्ति पदवीको प्राप्त करनेके लिये जो निर्गन्थता (दिगम्बरत्व) दी गई है उसके निमित्तसे उत्पन्न हुए आनन्दके प्रभाक्से मेरा मन इन्द्रियविषयजनित सुखको दुखरूप ही मानता है । ठीक है-प्राप्त हुआ खल (तेलके निकाल लेनेपर जो तिल आदिका भाग शेष रहता है) तब तक ही स्वादिष्ट प्रतीत होता है जब तक कि अतिशय मीठी सफेद शक्कर ( मिश्री ) तृप्तिको करनेवाली नहीं प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ अतिशय निर्मल ध्यानके आश्रयसे विस्तारको प्राप्त हुए निम्रन्थताजनित आनन्दके प्राप्त हो जानेपर खोटे
समयतोऽपि । २ पपमे-३३
वलिः ।