Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 299
________________ -906 : २३-१२] २३, परमार्थविंशतिः 904) दुःखन्यालसमाफुले मवयने हिंसादिदोषद्रुमे नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपथे भ्राम्यन्ति सधै जिनः । तन्मध्ये सुगुरुप्रकाशितपथे प्रारम्पयानो जनः यात्यानन्दकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं परम् ॥ १० ॥ 905) परसातं यदसातमणिषु भवेत्तत्कर्मकार्य तत. स्तकमवतन्यदात्मन इजानन्ति ये योगिनः। ईवम्भवविभावनाश्रितधियां तेषां कुतो ऽहं सुखी दुःखी चेति विकल्पकल्मषकला फुर्यास्पदं घेतसि ॥ ११॥ 906) देवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजन शास्त्रादि मन्यामहे सर्वे भक्तिपरा वयं व्यवहते मार्ग स्थिता निश्चयात् । भक्वने सर्व अनिः जीवाः । भ्राम्यन्ति । किंलक्षणे भवक्ने । दुःसव्याल-दुष्टयज-सर्पसमाकुले। पुनः हिंसादिदोषमें। पुनः विलक्षणे संसारबने। दुर्गतिपलिपातिकुपये दुर्गतिभिलप्रौमसदृशे कुपये । तन्मध्ये तस्य संसारस्य मध्ये । सुगुरुमनिरामयेरवदानः प्रारम्बमममः जनः । नित्यं सदैव । एक निर्वाण पुरं याति । किंलक्षणं निर्वाणम् । आनन्दकरं परम् । स्थिरतरं शाधतम् ॥ 1.1 अधिषु जीवेषु । यत्सातं शुभकर्म । यत् असातम् अशुभकर्म भवेत् । संसारे । तत्सर्व कर्मकार्यम् । ततः कर्मकार्यात् । तत्कमैव तत्कर्म अन्गत् आत्मनः सकाशात् भिनम् । ये योगिनः इदं भेदशानं जानन्ति तेषां ईरग्मेदविभावना-आत्रितधियो मुनीना वेतसि महं सुस्ती भई दुःखी इति विकल्पकल्मषकला पापकला। पदं स्थानम् । कुतः कुर्यात् कथं कुर्यात् । अपि तु न कुर्यान ॥ ११॥ यावत् वयं व्यबस्ते मार्गे व्यवहारमार्गे स्थिताः । भक्तिपरा वर्ग सर्वे मन्यामहे । देवं तरप्रतिमां गुरु मुनिजनं ग्रानादि सर्व मन्यामहे । निश्चयात पुनः एकताश्रयणतः अस्माकम् आत्मैव परं तत्वं लिये उसमें कुछ खेद नहीं होता ॥ ९॥ जो संसाररूपी वन दुःखोप सपों ( अथवा हाथियों ) से व्याप्त है, हिंसा आदि दोषोंरूप वृक्षोंसे सहित है, तथा नरकादि दुर्गतिरूप भीलवस्तीकी ओर जानेवाले कुमार्गसे युक्त है, उसमें सब प्राणी सदासे परिभ्रमण करते हैं। उक्त संसाररूप उनके भीतर जो मनुष्य उत्तम गुरुके द्वारा दिखलाये गये मार्गमें ( मोक्षमार्गमें ) गमन प्रारम्भ कर देता है वह उस अद्वितीय मोक्षरूप पुरको प्राप्त होता है जो आनन्दको करनेवाला है, उत्कृष्ट है, तथा अत्यन्त स्थिर ( अविनश्वर ) भी है ॥ १० ॥ प्राणियोंको जो सुख-दुखका अनुभव होता है वह कर्म ( साता और असाता वेदनीय ) का कार्य है, इसीलिये वह कर्म ही है और वह आत्मासे भिन्न है। इस बातको जो योगी जानते हैं तथा जिनकी बुद्धि इस प्रकारके भेदकी भावनाका आश्रय ले चुकी है उन योगियोंके मन में - मैं सुखी हूं, अथवा दुःखी हूं' इस प्रकारके विकल्पसे मलिन कला कहासे स्थान प्राप्त कर सकती है ! अर्थात् उन योगियोंके मनमें वैसा विकल्प कभी नहीं उदित होता ॥ ११॥ व्यवहार मार्ग में स्थित हम लोग भक्तिमें तत्पर होकर जिन देव, जिनप्रतिमा, गुरु, मुनिजन और शास्त्र आदि सबको मानते हैं। परन्तु निश्चयसे अभेद (अद्वैत ) का आश्रय लेनेसे प्रगट हुए चैतन्य गुणसे प्रकाशमें आई हुई बुद्धिके विस्ताररूप तेजसे सहित हमारे लिये केवल आत्म: ही उत्कृष्ट तत्व रहता है। विशेषार्थ-जीव जब तक व्यवहारमार्गमें स्थित रहता है तब तक वह जिन भगवान् और उनकी प्रतिमा आदिको पूज्य मानकर यथायोग्य उनकी पूजा आदि करता है। इससे उसके पुण्य कर्मका बन्ध होता है जो निश्चयमार्गकी प्राप्तिका साधन होता है । पश्चात् जब वह निश्चयमार्गपर आरूढ़ हो जाता है तब उसकी बुद्धि अभेद ( अद्वैत) का आश्रय ले लेती है। वह यह समझने लगता है शेरोद्गमे। २ 'प्राम' नास्ति। ततः तरकमेव ।

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