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--918:२४] २४. शरीरकम्
२६१ मानुष्य बपुराहुनतशियो नारीवर्ष मेषर्ज
तथा वसनानि परकमहो तत्रापि रागी जनः ॥२॥ 917) नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा धषि सर्षाशुधिभाजि निश्चितम् ।
ततः क पतेषु पुषः प्रपद्यते शुचित्वमम्बुखतिचन्दमादिभिः ॥ ३ ॥ 918) तिक्तेश्याई क्ष्वाकुफलोपमं वपुरिद मैचोपभोग्य नृणां
साधेमोहफुजम्मरधरहितं शुष्क तपोधर्मतः। किलक्षणं शरीरत्रणम् । दुर्गन्धम् । पुनः कृमिकीटजालकलितं व्याप्तम् । पुनः किंलक्षणे शरीरपणम् । नित्यम्नवत्-क्षरत दूरसं निन्धरसम्। पुनः विलक्षण शरीरव्रणम् । शौ यस्नानविधानेम वारिणा विहितप्रक्षालनम् । पुनः ममूर्त म्याधिमृतम् ॥ २॥ नृणाम् । भशेपानि समस्तानि । बषि शरीराणि । सदैव सर्वथा । निश्चितम् । अविभाजि अशुचिलं भजन्ति । ततः कारणात् । कः सुधः । एतेषु शरीरेषु । भम्युउतिचन्दनादिः जलस्नानचन्दनादिभिः शुचित्वं प्रतिपद्यते ॥३॥ मृणाम् इदं वपुः । तिक्तेष्वा फलोपर्म कटुकडेमीफलसरशं वर्तते। चेवदि। तपोधर्मतः शुष्कम् । स्थात् भवेत् । तदा भवनही-संसारनदीतारे क्षमं समर्थ जायते । उपभोग्य नैव । इदं वपुः । तुम्बीफलाम् । अन्तः मध्ये गौरवित न मध्ये गुरुत्वरहितम् । पक्षे तपोगौरवशानगवरहितम् ।
पट्टीके समान है । फिर भी आश्चर्य है कि उसमें भी मनुष्य अनुराग करता है। विशेषार्थ- यहां मनुष्यके शरीरको पावके समान बतलाकर दोनों में समानता सुचित की गई है। यथा-जैसे घाव दुर्गन्धसे सहित होता है वैसे ही यह शरीर भी दुर्गन्धयुक्त है, पाव जिस प्रकार लटों एवं अन्य छोटे छोटे कीड़ोंका समूह रहता है उसी प्रकार शरीरमें भी वह रहता ही है, पावसे यदि निरन्तर पीव और खून आदि बहता रहता है तो इस शरीरसे भी निरन्तर पसीना आदि बहता ही रहता है, धावको यदि जलसे धोकर स्वच्छ किया जाता है तो इस शरीरको भी जलसे स्नान कराकर स्वच्छ किया जाता है, धाव जैसे रोगसे पूर्ण है वैसे ही शरीर भी रोगोंसे परिपूर्ण है, धावको ठीक करनेके लिये यदि औषध लगायी जाती है तो शरीरको भोजन दिया जाता है, तथा यदि धावको पट्टीसे बांधा जाता है तो इस शरीरको भी वस्त्रोंसे वेष्टित किया जाता है। इस प्रकार शरीरमें धावकी समानता होनेपर भी आश्चर्य एक यही है कि घावको तो मनुष्य नहीं चाहता है, परन्तु इस शरीरमें वह अनुराग करता है ॥ २ ॥ मनुष्यों के समस्त शरीर सदा और सब प्रकारसे नियमतः अपवित्र रहते हैं । इसलिये इन शरीरोंके विषयमें कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य जलनिर्मित सान एवं चन्दन आदिके द्वारा पवित्रताको स्वीकार करता है। अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य स्वभावतः अपवित्र उस शरीरको नानादिके द्वारा शुद्ध नहीं मान सकता है ॥ ३ ॥ यह मनुष्योंका शरीर कडवी तुंबीके समान है, इसलिये वह उपयोगके योग्य नहीं है। यदि वह मोह और कुजन्मरूप छिद्रोंसे रहित, तपस्य घाम (धूप) से शुष्क (सूखा हुआ) तथा भीतर गुरुतासे रहित हो तो संसाररूप नदीके पार करानेमें समर्थ होता है। अत एव उसे मोह एवं कुजम्मसे रहित करके तपमें लगाना उत्तम है । इसके विना वह सदा और सब प्रकारसे निःसार है । विशेषार्थ-- यहां मनुष्य के शरीरको कडवी तुंबीकी उपमा देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार कडवी तुंत्री खानेके योग्य नहीं होती है उसी प्रकार यह शरीर भी अनुरागके योग्य नहीं है। यदि यह तुंबी छेदोंसे रहित, धूपसे सूखी और मध्यमें गौरव (भारीपन) से रहित है तो नदीमें तैरनेके काममें आती है । ठीक इसी प्रकारसे यदि यह शरीर भी मोह एवं दुष्कुलरूप छेदोंसे रहित, तपसे क्षीण
शकदेवाकु । २ क विहित प्रक्षालनम् ।