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२३. परमार्थविशतिः मौनं च प्रतिभासते ऽपि च रहा प्रायो मुमुक्षोभितः
विम्तायामपि यातुमिमाती पर घोषैर्मगा । RH 914) तवं वागतिवर्ति शुधनगतो यस्सर्वपक्षच्युत
तबाध्य व्यवहारमार्गपतितं शियार्पणे जापते । प्रागल्भ्यम तथास्ति ता विकृती पोषो न साइग्विधर सेनाय मनु मारो जगमतिमीनाभितस्तिष्ठति ॥२०॥
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मनः पद्धता मातुम् इच्छति विनाश गति ॥१९॥ शमनयतः यत्तत्वम् । वाक्-अतिवति वचनरक्षितम् । पुनः विलक्षम तलम् । सर्वपक्षम्युक्ते नवम्पासरहितम् । ततत्त्वं व्यवहारमार्गपवितम् । शिष्यार्पणे वाव्य वचनगोचरम् । बाबते । तत्र आत्मतती। तथा प्रामल मै मात्र आत्मतरवे। विएतो विचारगे । ताम्निषः पोधा शानं न! मनु इति बितक । तेन कारन । भमै बारजनः बरमतिः मौमाश्रितः विति॥२०॥ इति श्रीपरमार्थविवातिः ॥ २३ ॥
मी अनुराग नहीं रहता । वह पकान्त स्थानमें मौनपूर्वक स्थित होकर आत्मानन्दमें मम रहता है और इस प्रकारसे वह अज्ञानादि दोषों एवं समस्त मानसिक विकल्पोंसे रहित होकर अजर-अमर बन जात है॥ १९ ॥ जो तत्त्व शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वचनका अविषय (अवतव्य ) तथा नित्यत्वादि सब विकल्पोंसे रहित है वही शिष्यों को देनेके विषयों अर्थात् शिष्योंको प्रबोध करानेके लिये व्यवहारमार्गमें पड़कर वचनका विषय भी होता है । उस आत्मतत्वका विवरण करनेके लिये न तो मुझमें वैसी प्रतिभाशालिता ( निपुणता) है और न उस प्रकारका ज्ञान ही है । अत एव मुझ जैसा मन्दबुद्धि मनुष्य मौनका अवलम्बन लेकर ही खित रहता है ।। विशेषार्थ- यदि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वस्तुके शुद्ध स्वरूपका विचार किया जाय तब तो वह वचनों द्वारा कहा ही नहीं जा सकता है । परन्तु उसका परिज्ञान शिष्यों को प्राप्त हो, इसके लिये वचनोंका आश्रय लेकर उनके द्वारा उन्हें बोध कराया जाता है । यह व्यवहारमार्ग है, क्योंकि, वाथ्यपाचकका यह द्वैतभाव वहां ही सम्भव है, न कि निश्चयमार्गमें । ग्रन्थकर्ता श्री मुनि एममन्दी अपनी लघुता प्रगट करते हुए यहां कहते हैं कि व्यवहारमार्गका अवलम्बन लेकर भी जिस प्रतिभा अथवा मानके द्वारा शिष्योंको उस आत्मतत्त्वका बोध कराया जा सकता है वह मुझमें नहीं है, इसलिये मैं उसका विशेष विवरण न करके मौनका ही आश्रय लेता ई॥ २०॥ इस प्रकार परमार्थविंशति अधिकार समाप्त हुआ ॥ २३ ॥