Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 298
________________ २५ पचनन्दि-पञ्चविंशतिर [901२३-७काणी प्यपदार्थसंनिधिवशाजाते मणौ स्फाटिके पत्तस्मात्पृथगेष स तयालम लोके विकारो भवेत ॥७॥ 902) आपत्सापि यतेः परेण सह या संगो मवेकेनचित् सापत्सुषु गरीयसी पुनरहो यः श्रीमती संगमः । पस्तु श्रीमदमद्यपानविकलैरुत्तानितास्यैर्नृपैः संपर्कः स मुमुक्षुवेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत् ॥ ८॥ 903) मिग्धा मा मुमयो भयन्तु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजन मा किंचिजूनमस्तु मा परिव रुग्धर्जितं जायताम् । ननं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे निस्वानन्दपवन गुरुयचो जामति चेतसि ॥९॥ अहं न । विचित्रविलसस्कर्भकतायामपि । यद्यस्मास्कारणात् । स्फाटिके मणौ कृष्णपदार्थसनिधिवशात् काणे जीते सति । तस्मात् कृष्णपदार्थात् स मणिः पृथगेव भिन्नः । लोके संसारे । विकारः यकृतः भवेत् ॥ ७॥ अहो इति संबोधने । यत्तेः मुनीश्वरस्य । परेण केनचिरसह यः संगः संयोगः भवेत् । सापि आपत् भापदा कष्टम् । पुनः यः श्रीमता अध्ययुक्तानाम् । संगमः सा सुध गरीयसी आपत् ! तु पुनः । यानृपैः सह। संपर्कः संयोगः । स राजसंयोगः मुमुक्षुचेतसि मुनिचेतसि । सदाकाले। मूस्योः मरणास् । अपि केशकूत् । किलक्षणेः मृः । श्रीमदमद्यपान विकलैः । पुनः उत्तानितास्यैः अर्ध्वमुखेः। गार्वेतैः ॥८॥ बेदि । मेरेतसि गुरुवयः जागर्ति । किलक्षणं गुध्वचः 1 नित्यानन्दपदप्रदम् । तदा मुनयः । सिग्वाः स्नेहकारिणः मा भवन्तु । सदा गृहिणः श्रावकाः भोजनं मा यच्छन्तु । तदा धनं किंचित मा अस्तु । तदा इदं वपुः शरीरे मदर्जित मा जायताम् । मां नमम् अवलोक्य जनः निन्दतु । तत्र लौकिकदुःखे में खेदः न दुःखं में ॥९॥ कालेपनके उत्पन्न होनेपर भी वह उस मणिसे पृथक् ही होता है। कारण यह कि लोकमें जो भी विकार होता है वह दो पदाथोंके निमित्तसे ही होता है । विशेषार्थ-- यद्यपि स्फटिक मणिमें किसी दूसरे काले पदार्थके निमित्तसे कालिमा और जपापुष्पके संसर्गसे लालिमा अवश्य देखी जाती है, परन्तु वह वस्तुतः उसकी नहीं होती है । वह स्वभावसे निर्मल व धबलवर्ण ही रहना है | जब तक उसके पासमें किसी अन्य रंगकी वस्तु रहती है तभी तक उसमें दूसरा रंग देखनेमें आता है और उसके वहासे हट जानेपर फिर स्फटिक मणिमें वह विकृत रंग नहीं रहता है। ठीक इसी प्रकारसे आत्माके साथ ज्ञानावरणादि अनेक कर्मों का संयोग रहनेपर ही उसमें अज्ञानता एवं राग-द्वेप आदि विकारभाव देखे जाते हैं। परन्तु वे वास्तवमें उसके नहीं हैं, वह तो स्वभावसे शुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप ही है । वस्तुमें जो विकारभाव होता है वह किसी दूसरे पदार्थके निमित्तसे ही होता है । अत एव वह उसका नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, वह कुछ ही काल तक रहनेवाला है। जैसे- आगके संयोगसे जलमें होनेवाली उष्णता कुछ समय ( अमिसंयोग ) तक ही रहती है, तत्पश्चात् शीतलता ही उसमें रहती है जो सदा रहनेवाली है ॥ ७ । साधुका किसी पर वस्तुके साथ जो संयोग होता है यह भी उसके लिये आपत्तिस्वरूप प्रतीत होता है, फिर जो श्रीमानों ( धनवानों) के साथ उसका समागम होता है वह तो उसके लिये अतिशय महान् आपत्तिस्वरूर होता है, इसके अतिरिक्त सम्पत्तिके अभिमानरूप मद्यपानसे विकल होकर ऊपर मुखको करनेवाले ऐसे राजा लोगों के साथ जो संयोग होता है वह तो उस मोक्षाभिलापी साधुके मनमें निरन्तर मृत्युसे भी अधिक कष्टकारक होता है ॥ ८ ॥ यदि मेरे हृदयमें नित्य आनन्दपद अर्थात् मोक्षपदको देनेवाली गुरुकी वाणी जागती है तो मुनिजन स्नेह करनेवाले भले ही न हो, गृहस्थ जन यदि भोजन नहीं देते हैं तो न दें, मेरे पास कुछ भी धन न हो, यह शरीर रोगसे रहित न हो अर्थात् सरोग भी हो, तथा मुझे नग्न देखकर लोग निन्दा भी करे, तो भी मेरे १ क काणे व काव्यं । २ नशात् कृणवे जाते। ३ तब लोके खेदः ।

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