Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 270
________________ wor- A NANJ AAAAAAAA २२६ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [804:१५-२९804) सय प्रसाद कवितां करोत्थतः करा घटे मारशः। प्रसीद तथापि मयि स्वनन्दने न जातु माता विगुणे ऽपि निष्ठुरा ॥ २९ ॥ 805 ) इमामधीते श्रुतदेवतास्तुतिं कृति पुमान् यो मुनिपप्रनन्दिनः । स याति पारं कवितादिसद्गुणप्रबन्धसिन्धोः क्रमतो भवस्य च ॥ ३० ॥ 806) कुण्ठास्ते ऽपि वृहस्पतिप्रभूतयो यस्मिन् भवन्ति भुवं तस्मिन देवि तव स्ततिव्यसिकरे मम्दा नराके खयम् । ताक्चापलमेतवश्रुतवतामस्माकमम्ब स्खया क्षन्तव्य मुखरस्वकारणमसौ येनासिभकिग्रहः ॥ ३१॥ सूर्यामी वेजासि । विजित्य प्रकाशयात् । पुनः परमं श्रेषम् । यन्महः । तैः तमोमिः । न लभ्यते । व पुनः । तैः तेजोमिः । न प्रकाश्यते। विलक्षणे महः । खतः प्रकाशात्मकम् ॥१८॥ भो मातः । मयं तब प्रसादः । मरः कविता करोति । अतः तब प्रसादात् । तत्र कवित्थे। मादशः जनः करवटेत--समस्खन कई घटेत । तत्रापि मयि प्रसीद। जावचित्। लिपुणे गुणहितें अपि सनन्दने माता निचरा कठोरा भ भवेत् ॥ २९ ॥ यः पुमान् इमां श्रुतदेवतास्तुतिम् अधीते पठति। किंलक्षणा स्तुतिम् । मुनिपयनन्दिनः ऋतिम् । स मरः। कवितादिसणप्रबन्धसिन्धोः कविसादिगुणरबमासमुद्रस्य पार याति । च पुनः । क्रमतः भवस्य पार याति संसारस्य पारं गच्छति ॥ ३० ॥ भो देवि यस्मिन् तव स्तुतिम्पतिको स्तुतिसमूछे । तेऽपि बृहस्पतिप्रभूतयः देवाः नुवम् । कुण्ठाः मूर्खाः भवन्ति । तस्मिन् तव स्तोने । वयं मन्दाः मूर्जाः मरा के। तस्मात्कारणात् । भो अब भो मातः । भस्माकम् एततू वाकूचापलं वचनचालत्वं त्वया क्षन्तव्यम् । विलक्षणानाम् अस्माकम् । अनुतवता शुतरहिप्तानाम्। येन कारणेन । मुखरस्वकारणं अपलत्यकाणम् । असो अतिभतिग्रहः अतीव भक्तिषशः ॥२१॥ इति सरखतीस्तवनम् ॥ १५॥ और तेज (सूर्य-चन्द्रादिकी प्रभा) को जीतकर जिस उत्कृष्ट महान् तेजको प्रगट करता है वह न अन्धकारके द्वारा लुप्त किया जा सकता है और न अन्य तेजके द्वारा प्रकाशित भी किया जा सकता है। वह स्वसंवेदनस्वरूप तेज वृद्धिको प्राप्त होवे ॥ विशेषार्थ-जिनवाणीके अभ्याससे अज्ञानभाव नष्ट होकर केवलज्ञानरूप जो अपूर्व ज्योति प्रगट होती है वह सूर्य चन्द्रादिके प्रकाशकी अपेक्षा उत्कृष्ट है । इसका कारण यह है कि सूर्य-चन्द्रादिका प्रकाश नियमित (क्रमशः दिन और रात्रि) समयमें रहकर सीमित पदार्थोंको ही प्रगट करता है। परन्तु वह केवलज्ञानरूप प्रकाश दिन व रात्रिकी अपेक्षा न करके-सर्वकाल रहकर-तीनों लोकों व तीनों कालोके समस्त पदार्थोंको प्रगट करता है । इस केवलज्ञानरूप प्रकाशको नष्ट करने में अन्धकार (कर्म) समर्थ नहीं है वह स्व-परप्रकाशकस्वरूपसे सदा स्थिर रहनेवाला है।॥ २८॥ हे सरस्वती ! तेरी प्रसन्नता ही कविताको करती है, क्योंकि, मुझ जैसा मूर्ख पुरुष भला उस कविताको करनेके लिये कैसे योग्य हो सकता है ? नहीं हो सकता। इसलिये तू मुझ मूर्खके ऊपर भी प्रसन्न हो, क्योंकि, माता गुणहीन भी अपने पुत्रके विषयमें कठोर नहीं हुआ करती है ! ।।२९।। जो पुरुष मुनि पद्मनन्दीकी कृतिस्वरूप इस श्रुतदेवताकी स्तुतिको पढ़ता है वह कविता आदि उत्तमोत्तम गुणों के विस्ताररूप समुद्रके तथा क्रमसे संसारके भी पारको प्राप्त हो जाता है ॥३०॥हे देवी! जिस तेरे स्तुतिसमूहके विषयमें निश्चयसे वे बृहस्पति आदि भी कुण्ठित (असमर्थ) हो जाते हैं उसके विषयमें हम जैसे मन्दबुद्धि मनुष्य कौन हो सकते हैं ? अर्थात् हम जैसे तो तेरी स्तुति करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं । इसलिये.हे माता! शास्त्रज्ञानसे रहित हमारी जो यह वचनोंकी चंचलता, अर्थात् स्तुतिरूप यचनप्रवृत्ति है, उसे तू क्षमाफर । कारण यह कि इस वाचालता ( बकवाद ) का कारण वह तेरी अतिशय भक्तिरूप मह (पिशाच ) है। अभिप्राय यह कि मैंने इस योग्य न होते हुए भी जो यह स्तुति की है वह केवल तेरी भक्तिके वश होकर ही की है ॥ ३१ ॥ इस प्रकार सरस्वतीस्तोत्र समाप्त हुआ ॥ १५॥ सच सामस्तेन ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328