Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 282
________________ २३८ पसनन्दि-पञ्चविंशतिः [842:१८४सेवायातसमस्तविष्टपपतिस्तुस्याश्रयस्पर्सया सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥ ४॥ 843) खद्योती किमुतानलस्य कणिके शुभ्राभलेशावथ, सूर्याचन्द्रमसाविति प्रगुणितौ लोकालियुग्मैः सुरैः। सत्येते हि यदप्रतो ऽतिविशदं सद्यस्य भामण्डल सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ५॥ 84) यस्याशोकतरुविनिदसुमनोगुच्छप्रसक्तैः कण श्रीभक्तियुतः प्रभोरहरहर्गायनिवास्ते यशः। शुभ्र साभिनयो मरुषललतापर्यन्तपाणिश्रिया सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथा सदा ॥ ६ ॥ 845) विस्तीर्णाखिलवस्तुतत्त्वफथनापारप्रवाहोजवला मिशेषार्थिनिषेषितातिशिशिरा शैलादिषोतुगतः । अप्रे । दिवः आकाशात् । सरैः देवैः । कूता। सुमनसा पुष्माणाम् । वृष्टिः अभवत् । किंलक्षणा पष्टिः । गन्धाष्टमधुनतमस्तैः शब्दैः । व्यापारिता शम्दायमाना। स्वोत्रापि कृतीय। कया । सेवाभायाससमस्त विष्टपपतिस्तुस्थाश्रयस्पर्वया ॥ ४ ॥ स श्रीशान्तिमाथः अस्मान् पाद रक्षतु । यस्य धीशान्तिनापस्य तत् भामण्डलमतिविशद वर्तते । यदमतः यस्य भामण्डलस्य भने । हि यतः । सुरैः देवैः। सूर्याचन्द्रमसौ तक्येत्ते इति । किम् । सद्योती। उस महो । अनलस्य रैमा । कणिके दे। भय शुभअभ्रदेशी लोके 'भोडलखण्डौ' । लोकाक्षियुम्मैः इति । प्रणिती विद्यारिती ॥५॥ स श्रीशान्तिनायः अस्मान् । पातु रहनु । यस्य श्रीशान्तिमायस्य । अशोकतहः वणवा । प्रभोः श्रीशान्तिनाथस्य । हु यक्षः । अहः अहः प्रतिदिनम् । गायत्रिव । भावे सिष्ठति । किलक्षणैः मुझे। विनिद्रसुमनोगुच्छप्रसस्तः विकसितपुष्पगुणेषु भासः । किंलक्षणः अशोकतमः । भफियुतः । पुनः किलक्षणः शोकतरुः । मरुचललतापर्यन्तपाणिनिया मक्ता पवनेन चल चन्चलीकृत लतापर्यन्त सतान्त तदेव पाणिः हवं तस्य चिया कृस्वा। साभिनयः मर्तनयुक्तः ॥॥ श्रीशान्तिमायः अस्मान् पातु रक्षतु । यतः श्रीशान्तिनायात् । सरखती। प्रोभूता उत्पन्ना। किंलक्षणा सरखती। पुरनुता देवैः वन्दिता । पुनः किलक्षणा सरस्वती । विश्वं त्रिलोकम् । पुनाना पवित्री की गई जो आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा हुई थी वह गन्धके द्वारा खींचे गये अमरसमूहके शब्दोंसे मानों सेवाके निमित्त आये हुए समस्त लोकके स्वामियों द्वारा की जानेवाली स्तुति के निमित्तसे स्पर्धाको प्राप्त हो करके स्तुतियों को ही कर रही थी, वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी रक्षा करे|४| जिस शान्तिनाथ भगवानका अत्यन्त निर्मल यह भामण्डल है जिसके कि आगे लोगोंके दोनों नेत्र तथा देव सूर्य और चन्द्रमाके.विषयमें ऐसी कल्पना करते हैं कि ये क्या दो जुगनू हैं, अथवा अग्निके दो कण हैं, अथवा सफेद मेधके दो टुकडे हैं; वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी रक्षा करें। विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि भगवान् शान्तिनाथ जिनेन्द्रका प्रभामण्डल इतना निर्मल और देदीप्यमान था कि उसके आगे सूर्य-चन्द्र लोगोंको जुगनू, अग्निकण अथवा धवल मेघके खण्डके समान कान्तिहीन प्रतीत होते थे । ५ ॥ जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रका अशोकवृक्ष विकसित पुष्पोंके गुच्छोंमें आसक्त होकर शब्द करनेवाले भोरोंके द्वारा मानो भक्तियुक्त होकर प्रतिदिन प्रभुके धवल यशका गान करता हुआ तथा वायुसे चंचल लताओंके पर्यन्तभागरूप भुजाओंकी शोभासे मानो अभिनय (नृत्य) करता हुआ ही स्थित है वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोनोंकी सदा रक्षा करे ॥ ६ ॥ उन्नत पर्वतके समान जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रसे उत्पन्न हुई दिव्य वाणीरूप सरखती नामक नदी ( अथवा गंगा) विस्तीर्ण समस्त वस्तुखरूपके व्याख्यानरूप अपार प्रवाहसे उज्वल, सम्पूर्ण अर्थी जनोंसे सेवित, अतिशय शीतल, देवोंसे स्तुत तथा विश्वको पवित्र करनेवाली है। यह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंझी १क अमे: नास्ति । २ 'लसान्त' नास्ति ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328