Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ २४४ पनमन्दि-पञ्चविंशतिः [862:२०-५. 862) प्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपगुते पुलि। जगता प्रमोर्म कि तव जिन ममि सलकर्मभिः प्रहते ॥ ५ ॥ 863) अपहर मम जन्म वयाँ करवेस्पेका क्यासिषक्तव्ये । सेनातिदग्ध इति मे देष भूव प्रलापिस्वम् ॥६॥ 864) तब जिनपरणाम्अयुर्ग करणामृतसंपातल यावर । संसारातपतप्तः करोमि हदि तावदेव सुखी ॥७॥ 865) जगदेकर भगवत्र समधीपयनम्दिसगुणीध। किंबहुना कुरु करुणाम् अन जने शरणमापने ॥८॥ दया उत्पद्यते । खलकर्ममिः मयि प्रावे व्यषिते । जगतां प्रभोः तव यया कि न आयते । अपि तु जायते ॥ ५ ॥ भो देव । दयां कृत्वा मम जन्म अपदर संसारनाशनं कुरु । एकत्ववचसि वक्तव्ये इति निश्चयः । तेन जन्मना । अहम् अतिदग्धः । इति हेतोः । मे मम । प्रलापिसं करत्वं बभूव ।।६॥ भो जिन । संसार-आतपतम अहं तव चरणाजयुगे याक्काल हदि करोमि तावकालम् एव सुखी। किलक्षणं चरणकमलम् । करुणा-अमृतसैगवत् शीतलम् ॥७॥ भो जगदेवशरण । भो भगवन् । भो असमश्रीपयनन्वितगुणौष । अत्र मयि । जने। करुणा कुरु । बहुना अकेन किम् । किंलक्षणे मयि । शरणम् आपने प्राप् ॥ ८॥ इति श्रीकरुणाष्टकम् ॥ २०॥ दुसरेके द्वारा पीड़ित मनुष्यके ऊपर दया करता है | फिर जब आप तीनों ही लोकोंके स्वामी हैं तब क्या दुष्ट काँके द्वारा पीड़ित मेरे ऊपर दया नहीं करेंगे? अर्थात् अवश्य करेंगे ॥ ५॥ हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म (जन्म-मरणरूप संसार) को नष्ट कर दीजिये, यही एक बात मुझे आपसे कहनी है । परन्तु चूंकि मैं उस जन्मसे अतिशय जला हुआ हूं अर्थात् पीड़ित हूं, इसीलिये मैं बहुत बकवादी हुआ हूं ॥ ६ ॥ हे जिन । संसाररूप आतपसे सन्तापको प्राप्त हुआ मैं जब तक दयारूप अमृतकी संगतिसे शीतलताको प्रास हुए तुम्हारे दोनों चरण कमलोंको हृदयमें धारण करता हूं तभी तक सुखी रहता हूं ||७|| जगत्के प्राणियोंके अद्वितीय रक्षक तथा असाधारण लक्ष्मीसे सम्पन्न और मुनि पद्मनन्दीके द्वारा स्तुत गुणसमूहसे सहित ऐसे हे भगवन् ! मैं बहुत क्या कहूं, शरणमें आये हुए इस जनके (मेरे) ऊपर आप दया करें ॥ ८ ॥ इस प्रकार करुणाधक समाप्त हुआ ।। २० ॥ १च प्रतिपाठोऽयम् । म कस्ववचनि। २श संसारतापतमः। । सम ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328