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[१६. स्वयंभूस्तुतिः] 807) स्वयंभवा येन समुद्धृतं जगजडत्यक पतितं प्रमादतः।
परात्मतत्वप्रतिपादनोलसहयोगणैराविजिनःस सेव्यतामा 808) भवारिरेको न परोऽस्ति देहिनां सुहश रखत्रयमेक एव हि ।
स दुर्जयो थेन जितस्तवाश्रयारतो ऽजिताम्मे जिनतो ऽस्तु सत्सुखम् ॥ २॥ 809) पुनातु नः संभवतीर्थकृजिनः पुनः पुनः संभवदुख दुःखिताः।
तवर्तिनाशाय धिमुक्तिवर्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ॥ ३ ॥ 810) निजैर्गुणैरपतिमैर्महानजो न तु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः।
थतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनन्दनं जिनम् ॥ ४ ॥ स आदिजिनः सर्वज्ञः ऋषभदेवः सेव्यताम् । येन आदिजिनेन । परात्मतत्त्वप्रतिपादनेम उल्लसन्तः ये क्चोगुणाः सः चोगुणेः । जगत् समुद्धतम् । किंलक्षणेन आदिजिनेन । स्वयंभुवा स्वयंप्रबुद्धज्ञानेन । किलक्षणे अगत् । प्रमादतः जडत्वकृपे पतितम् ॥१॥हि यसः । देहिना जीवानाम् । एक भवः संसारः ! अरिः शत्रुः । अपरः शत्रुने अस्ति। च पुनः । एक एव रस्मन्नर्थ सुहत् अस्ति । मेन अजितेन । स 'संसारशत्रुः । तदाश्रयात् तस्य रत्नत्रयस्य आश्रयात् । जितः। किंलक्षणः संसार शत्रुः । दुर्जयः । ततः कारणात् । अजितात् जिनतः सकाशात् । मे मम । सत्सुखम् अस्तु ॥ २ ॥ संभवतीर्थकृत् जिनः । नः अस्माकम् । पुनः पुनः पुनातु पवित्रीकरोतु । संभवः संसारः तस्यै दुःखेन दुःखिताः प्राणिनः । ये शरणं प्रपेदिरे ये संभवतीर्थकर प्राप्ताः । कस्मै । तदर्तिनाशाय संसारनाशाय । किंलक्षणं तीर्थकरम् । विमुक्तिवर्मनः मोक्षमार्गस्य । प्रकाशकम् ॥ ३ ॥ तमू अभिनन्दनं जिनम् । विमुपये मोक्षाय । साक्षात् मनोवचमकायै नमामि । यः अभिनन्दनः। निजः गुणः । अप्रतिमः असमानैः । महान् वर्तते । तु पुनः ! त्रिलोकी जनसमूह-अर्चनेन पूजनेन । महान् न । किंलक्षणः अभिनन्दनः । अजः जन्म
स्वयम्भू अर्थात् स्वयं ही प्रबोधको प्राप्त हुए जिस आदि (ऋषम ) जिनेन्द्रने प्रमादके वश होकर अज्ञानतारूप कुएं में गिरे हुए जगत्के प्राणियोंका पर-तत्त्व और आस्मतत्त्व ( अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्व) के उपदेशमें शोभायमान वचनरूप गुणोंसे उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्रकी आराधना करना चाहिये ।। विशेषार्थ- यहां श्लोकमें प्रयुक्त गुण शब्दके दो अर्थ हैं-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि असावधानीसे कुएं में गिर जाता है तो इतर दयालु मनुष्य कुएम रस्सियोंको डालकर उनके सहारेसे उसे बाहिर निकाल लेते हैं। इसी प्रकार भगवान् आदि जिनेन्द्रने जो बहुत-से प्राणी अज्ञानताके वश होकर धर्मके मार्गसे विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेशके द्वारा उद्धार किया था--- उन्हें मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होंने उनको ऐसे वचनों द्वारा पदार्थका स्वरूप समझाया था जो कि हितकारक होते हुए उन्हें मनोहर भी प्रतीत होते थे। 'हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्तिके अनुसार यह सर्वसाधारणको सुलभ नहीं है ॥ १ ॥ प्राणियोंका संसार ही एक उत्कृष्ट शत्रु तथा रखत्रय ही एक उत्कृष्ट मित्र है, इनके सिवाय दूसरा कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं है । जिसने उस रत्नत्रयरूप मित्रके अबलम्बनसे उस दुर्जय संसाररूप शत्रुको जीत लिया है उस अजित जिनेन्द्रसे मुझे समीचीन सुख प्राप्त होवे ॥ २ ॥ बार वार जन्म-मरणरूप संसारके दुःखसे पीड़ित प्राणी उस पीडाको दूर करनेके लिये मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेवाले जिस सम्भवनाथ तीर्थकरकी शरणमें प्राप्त हुए थे वह सम्भव जिनेन्द्र हमको पवित्र करे ॥ ३ ॥ अज अर्थात् जन्म-मरणसे रहित जो अभिनन्दन जिनेन्द्र अपने अनुपम गुणोंके द्वारा महिमाको प्राप्त हुआ है, न कि तीनों लोकोंके प्राणियों द्वारा की जानेवाली पूजासे; तथा जिसके आगे विश्व तुच्छ है अर्थात् जो अपने अनन्तज्ञानके द्वारा समस्त विश्वको साक्षात् जानता-देखता है उस
१क्ष भबोरिरेको । २ स सः' नास्ति । ३ श अस्मान् नः पुनातु पवित्रीकरोतु पुनः पुनः। ४ क संभवस्य संसारस्य ।