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२२४ पानन्छि-पञ्चविंशतिः
[795:11. 795) अगोचरो घासरकन्निशाकतोर्जनस्य यश्चेतसि वर्तते तमः।
विभिद्यते वागधिदेवते त्वया घमुस्तमज्योतिरिति प्रणीयसे ॥ २० ॥ 796) जिनेश्वरस्वच्छसरासरोजिनी त्वमपूर्षादिसरोजराजिता ।
गणेशहसनजसेविता सदा करोषि केषां न मुदं परामिह ॥ २६ ॥ 797) परात्मतत्वमतिपत्तिपूर्वकं परं परं यत्र सति प्रसिद्ध्यति ।
कियत्ततस्ते स्फुरतः प्रभायतो तृपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकम् ॥ २२ ॥ 798) त्वदलिपपदयभकिभाविते तृतीयमुन्मीलति योधलोचनम् ।
___ गिरामधीशे सह फेवलेन यत् समाश्रितं स्पर्धमिवेक्षते ऽखिलम् ॥ २३ ॥ अत्र जन्मनि । अपरे भवे अपरजन्मनि फलसि । तैः कल्पवृक्षादिभिः । कथम् उपमीयसे ॥ १९ ॥ भो वागधिदेवते भो मासः। स्वया तमः विभिद्यते दूरीक्रियते । यत्तमः जनस्य चेससि वर्तते । यत्तमः । वासरकृनिशाकृतोः सर्याचनमसोः। अगोचरः अगम्यः इति हेतोः त्वम् । तमज्योतिः । प्रमीयसे कथ्यसे ।। २.॥ भो देविस्वम । इह लोके । केषा' जीवानाम् । परो मर्द है न करोपि । अपि तु सर्वेषां प्राणिनां मुई करोषि । किंलक्षणा स्वम् ।जिनेवरखरछसरोवरस्य सरोजिनी कमलिनी वर्तसे । पुनः किलक्षणा स्वम् । मनपूर्वादिसरोजकमलानि तैः राजिता शोभिता । पुनः किंलक्षणा स्वम् । गणेश-गणधरदेव-ईसब्रज-समूब सेविता । सदाकाले ॥२१॥ ततः कारणात् । ते फुरतः प्रसाद राकपा । हावन नामादिक कियन्मात्रम् । यत्र तब प्रभावे सति परं पदं प्रसिध्यति । किंलक्षण पदम् । परारमतत्त्वप्रतिपक्तिपूर्वक मेदज्ञानपूर्वकम् ॥२२॥ भो देवि । वदनिपायभक्तिभाविते मरे तव चरणकमलभरिक युके नरे। तृतीय बोधलोचनं शाननेत्रमू । उन्मीलति प्रगटीभवति । यत्तव बोधलोचनम् 1 गिराम् अधीशे सर्वहे । केवलेन सह सर्व समाश्रितम् इव । यतृतीयलोचनम् । अखिल हे देवी! तू इस भवमें और परभवमें भी फल देती है। फिर भला विद्वान् मनुष्य तेरे लिये इनकी उपमा कैसे देते हैं । अर्थात् तू इनकी उपमाके योग्य नहीं है-उनसे श्रेष्ठ है |१९|| हे वागधिदेवते ! लोगोंके चित्तमें जो अन्धकार (अज्ञान ) स्थित है वह सूर्य और चन्द्रका विषय नहीं है, अर्थात् उसे न तो सूर्य नष्ट ऋ सकता है और न चन्द्र भी । परन्तु हे देवी ! उसे ( अज्ञानान्धकारको) तू नष्ट करती है । इसलिये तुझे 'उत्तमज्योति' अर्थात् सूर्य-चन्द्रसे भी श्रेष्ठ दीप्तिको धारण करनेवाली कहा जाता है ।। २. ॥ हे सरस्वती! तुम जिनेन्द्ररूप सरोवरकी कमलिनी होकर अंग-पूर्वादिरूप कमलोंसे शोभायमान तथा निरन्तर गणधररूप हंसोंके समूहसे सेवित होती हुई यहां किन जीवों के लिये उत्कृष्ट हर्षको नहीं करती हो? अर्थात् सब ही जनोंको आनन्दित करती हो ॥२१॥ हे देवी! जहां तेरे प्रभावसे आत्मा और पर ( शरीरादि) का ज्ञान हो जानेसे प्राणीको उत्कृष्ट पद (मोक्ष) सिद्ध हो जाता है वहां उस तेरे दैदीप्यमान प्रभावके आगे राजापन, सुभगता एवं सुन्दर स्त्री आदि क्या चीज हैं ! अर्थात् कुछ मी नहीं है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी उपासनासे जीवको हित एवं अहितका विवेक उत्पन्न होता है और इससे उसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें उसकी उपासनासे राजपद आदिके प्राप्त होनेमें भला कौन-सी कठिनाई है ? कुछ भी नहीं ।। २२ ।। हे वचनोंकी अधीश्वरी ! जो तेरे दोनों चरणोंरूप कमलोंकी भक्तिसे परिपूर्ण है उसके पूर्ण श्रुतज्ञानरूप वह तीसरा नेत्र प्रगट होता है जो कि मानो केवल ज्ञानके साथ स्पर्धाको ही प्राप्त हो करके उसके विषयभूत समस्त विश्वको देखता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी आराधनासे द्वादशांगरूप पूर्ण श्रुतका ज्ञान प्राप्त होता है जो विषयकी अपेक्षा केवलज्ञानके ही समान है। विशेषता दोनोंमें केवल यही है कि जहां श्रुतज्ञान उन सब पदार्थोंको परोक्ष
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