Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 259
________________ -755: १५५४] १५. जिनपरस्तवनम् 749) दिवे तुमम्मि जिणवर वियारपरिवजिए परमसंते। जस्स ज हिट्ठी दिट्टी तस्स ण णवजम्मैपिच्छेओ ॥ ८॥ 750) दिहे तुमम्मि जिणवर ज मह कर्जतराउल हियर्य। कड्या वि हवा पुअनियस्स कम्मरस सो दोसो॥९॥ 751) विड्ढे तुमम्मि जिणवर अच्छा जम्मतरं ममेहावि। __ सहसा सुहेहिं घडियं दुक्खेहि पलायं पूर्व ॥ १०॥ 752 ) दिढे तुमम्मि शिणवर बजा पट्टो दिणम्मि अजायणे । सहलसणेण माझे सब्यादिणाणं पि सेसाणं ॥ ११॥ 758) विढे तुमम्मि जिणवर भषणमिणे तुज्य मह महम्मतरं । सध्याण पि सिरीणं संकेयधरव पडिहाहा १२॥ 754) दिढे तुमम्मि जिणवर मसिजलोल समासिदै छ। पुलपमिसा पुषणबीयर्मकुरियमिय सहा ॥ १३ ॥ 755) विढे तुमम्मि जिणवर समयामयसायरे गहीरम्मि। गयाइयोसकलसे देवे को मण्णए सयाणो॥१४॥ भो जिनवर । त्वयि दष्टे सति यस्य दृष्टिः हर्षिता न तस्य नवजन्मविच्छेदः म । किलक्षणे स्वमि । विकारपरिवर्जिते परमधान्ते ॥८॥भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कदापि सम्मम प्रदर्य कार्यान्तराफले भवति स पर्वाचितकर्मणो दोषः॥९॥ भो जिनवर । स्वमि दृष्टे सति जन्मान्तरेऽपि मम वामम दूरे तिधतु । इदानी सहसा शीघ्रम् । अहं सुखैः परितम् भाषितम् । दरम्भ तिशयेन। सः पलायित रकम् ॥१.॥ भो जिनवर । स्वयि पष्टे सति जनः कोकः मञ्चदिने भियतने] सवैदिनाना क्षेषाणां मध्ये सफलत्वेन पर बनाति ॥ ११॥ भो जिनवर । त्वयि इष्टे सति इदं तर भवन समवसरणं महत मह [हा ] अंतरे प्रतिमाति शोभते । किंलक्षणं समवसरणम् । सर्वासा श्रीणां संकेतगृहमिव ॥ १२ ॥ भो जिनवर । त्वपि दृष्टले सति यत् शरीर मजिजलेन म्या समाश्रितम्। तत् शरीर पुलकितमिषेण ब्याजेन पुण्यपीजम् महारतम् स सहा शोमते पुण्याहरमिव ॥१॥ भो जिमवर । त्वयि इष्टे सति रागाविदोषकतुषे देवे का ससानः अनुराग प्रीति मन्यते । अपि तु सभामः उत्पन्न करता है ॥ ७ ॥ हे जिनेन्द्र । रागादि विकारोंसे रहित एवं अतिशय शान्त पेसे आपका दर्शन होनेपर जिसकी दृष्टि हर्षको प्राप्त नहीं होती है उसके नवीन जन्मका नाश नहीं हो सकता है, अर्थात उसकी संसारपरम्परा चलती ही रहेगी ॥ ८॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर यदि मेरा इदय कमी दूसरे किसी महान कार्यसे व्याकुल होता है तो वह पूर्वोपार्जित कर्मके दोषसे होता है ॥९॥ हे जिनेन्द्र । आपका दर्शन होनेपर जन्मान्तरके सुखकी इच्छा तो दूर रहे, किन्तु उससे इस लोकमें भी मुझे अकस्मात सुख प्राप्त हुआ है और दुल सब दूर भाग गये हैं।॥ १० ॥ हे जिनेन्द्र ! आफ्का दर्शन होनेपर शेष सब ही दिनोंके मध्यमें आजके दिन सफलताका पट्ट बांधा गया है । अभिप्राय यह है कि इतने दिनोंमें आजका यह मेरा दिन सफल हुआ है, क्योंकि, आज मुझे चिरसंचित पापको नष्ट करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ।। ११॥ हे जिनेन्द्र । आपका दर्शन होनेपर यह तुम्हारा महा-मूल्यवान् घर ( जिनमन्दिर) मुझे सभी लक्ष्मियोंके संकेतगृहके समान प्रतिभासित होता है। अभिप्राय यह कि यहां आपका दर्शन करनेपर | मुझे सब प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त होनेवाली है॥१२॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर भक्तिरूप जलसे आई हुए खेत (शरीर) को जो पुण्यरूप बीज प्राप्त हुआ था वह मानो रोमांचके मिषसे अंकुरित होकर ही शोभायमान हो रहा है ॥ १३ ॥ हे जिनेन्द्र ! सिद्धान्तरूप अमृतके समुद्र एवं गम्मीर ऐसे आपका दर्शन होनेपर पहिदि। २ श ण णियजम्म। ३श निजजन्म०। ४ जनै लोकैः। ५क प्रतावस्या गाभायाटीक विपातिखचि मिनवर भवनमिदं तक मम मध्यतरं प्रतिभाति शोभते समवशरण सर्वासामपि भीणां संकेतगृहमिव ।

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