Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 256
________________ ૨૧૨ [731:१३-५० पननन्दि-पञ्चविंशतिः 781 ) वियला मोहणधूली तुह पुरषो मोहठगपरिटुविया । पणषियसीसाओ तमो पणवियसीसा खुदा होति ॥ ५० ॥ 782 ) बमप्पमुहा सण्या सध्या तुए जे भणति अण्णस्स। ससिजोहा खजोए जडेहि जोडिजए तेहिं ५५१।। 798)* व मोक्लायती ने त्रिय मरणं जणमल मयस्स | सेणिकारणविजो जाजरामरणवाहिहरो ॥ ५२ ॥ 734) किच्छाहि समुवलखे कयकिचा अम्मि जोदणो होति । ते परमकारणं जिण णे तुमाहितो परो अस्थि ॥ ५३ ।। 785) मुहमो सि तहण दीससि जाह पहु परमाणुपेच्छपहि" पि गुरुवों वह बोहमए जह तई सब पि संमाय ॥ ५४ ॥ 786) णीसेसंवत्थुलत्थे हेयमहेयं णिरुषमाणस्स। तं परमप्पा सारो सेसमसारं पलालं वा ॥ ५५॥ अप्रतः प्रणमितशीर्षात् मोहुनधूक्तिः नियमति पतति । किंलक्षणा धूलिः । मोहठगस्थापिता । तत्तस्मात्कारणात् । युवाः पणिता प्रणमितशीर्षा भवन्ति ॥५०॥ भो जिन ये पुमासः भन्यदेवस्थ ब्रह्मा [] प्रमुम्हाः सर्वाः संज्ञाः नानः [नामानि ] तदेव भणन्ति । तैः जहैः शशिज्योत्स्नाकिरणाः खद्योते योज्यते [ योज्यन्ते] ॥५१॥ भो जिन । त्वमेव मोक्षपदवी । मो जिन। रवमेव जनस शरणम् । सर्वस्व अनस्य शरणम् । भो जिन । स्वमेव निःकारणवैयः । स्वमेव जातियरामरगम्याधिहरः ॥ ५२ ॥ भो जिन । यस्मिन् त्वयि मछात्समुपलम्बे सचि योगिनः क्तकस्या भवन्ति । तत्तस्मात्कारणात् । त्वत्तः सकाशात् । अमः परमपदकारण म अस्ति ।। ५३ ॥ भो प्रभो । तथा तेन प्रकारेण सूक्ष्मोऽसि यथा परमाणुप्रेक्षकैः मुनिभिः न दृश्यसे । भो जिन त्वं तथा गरिष्ठः यथा स्वयि ज्ञानमये सर्व प्रतिविम्बित संमातम् ॥ ५४॥ भो देन । निःशेषवस्तुशाने । हेय त्याज्यम् । भई प्रायम् । निरूप्यमाणस्प मध्ये त्वं परमात्मा सारः प्रायः । शेवं वस्तु स्वतः अन्यत् असारं वा । पलाल तणम् ॥ ५५॥ भो देव । arwwwwwimanmanarayerwwwkammarwar rrrramanane त्यामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाचं प्रमाणमीश्वरमनन्समनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ बुद्धस्त्वमेव विदुधार्चितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद् व्यक्तं स्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि [भक्तामर० २४-२५] ॥५१॥ हे जिनेन्द्र 1 तुम ही मोक्षके मार्ग हो, तुम ही सब प्राणियोंके लिये शरणभूत हो; तथा तुम ही जन्म, जरा और मरणरूप व्याधिको नष्ट करनेवाले निःस्वार्थ वैद्य हो ॥ ५२ ॥ हे अईन् ! जिस आपको कष्टपूर्वक प्राप्त (शात) करके योगीजन कृतकृत्य हो जाते हैं वह तुम ही उस कृतकृत्यताके उत्कृष्ट कारण हो, तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई उसका कारण नहीं हो सकता है ॥ ५३॥ हे प्रभो | तुम ऐसे सूक्ष्म हो कि जिससे परमाणुको देखनेवाले भी तुम्हें नहीं देख पाते हैं। तथा तुम ऐसे स्थूल हो कि जिससे अनन्तज्ञानस्वरूप आपमें सब ही विश्व समा जाता है ।। ५४ ॥ हे भगवन् ! समस्त वस्तुओंके समूहमें यह हेय है और यह उपादेय है, ऐसा निरूपण करनेवाले शास्त्रका सार तुम परमात्मा ही हो । शेष सब पलाल (पुआल) के समान निःसार है ।। ५५॥ हे सर्वज्ञ ! जिस आकाशके गर्भ में तीनों ही लोक परमाणुकी लीलाको धारण करते है, अर्थात् परमाणुके समान प्रतीत होते हैं, वह आकाश भी आपके ज्ञानके भीतर सहम। मकवियो, म विदो । ३ कप नास्ति । ४ पच्छपाई। ५ गयो। तर, मत कणिस्सेस ।

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