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पचमन्दि-पश्चशितिः
[6561११५१658) कर्मकलितो ऽपि मुका सश्रीको दुर्गतोऽप्यहमतीष ।
तपसा हुस्यापि च सुखी श्रीगुरुपादप्रसादेन ॥ ५९॥ 657 पारित गरिदिपाय गाने लात्तन्मे ।।
आरुष्टपत्रसूत्राहारनरः स्फुरति नटकानाम् ॥ १०॥ 658) निमयपश्चाशत पमनन्दिनं सरिमाधिभिः कैधित।
शः स्पेशक्तिसूचितवस्तुगुणैर्विरचितेयमिति ॥ ११ ॥ 659) पुणे नृपश्री किमु वच्मि तस्यां न कार्यमाखण्डलसंपदोऽपि ।
भशेषषाशाविलयैकरूपं तस्वं परं चेतसि ममास्ते ॥ २ ॥ अवलोक्यमानेन । इप्सित में प्राप्य विलोस्पते ।। ५८ ॥ श्रीगुरुपादप्रसादेन अह कर्मकलितोऽपि मुक्तः । श्रीगुरुपादप्रसादेन भई दुर्गतोऽपि दरिद्रोऽपि अतीव सश्रीकः श्रीमान् । पुनः । तपसा दुःखी अपि श्रीगुरुपादप्रसादेन भई सुखी ।। ५९ ।। मे मम बोधात् शानात् । किचित् अपरम् । कार्य न अस्ति । यत् पश्यते सत् । मलात् कर्मग्लात् दृश्यते । नटकानाम् । दारुमरः काठपुतलिका । आकृष्टयनासूत्रात् धाकर्षितसूत्रात् । नटति नृत्यति ॥ १०॥ इवि अमुना प्रकारेण । इयं निश्चयपचाशत् कैश्चित् शम्पैः । विरचिता कता। किलक्षणः शब्दः । पद्मनन्दिनम् । सूरिम् आचार्यम् । माश्रिभिः माश्रितः । पुनः किलक्षणः शब्द।। 'वकिसूचितवस्तुगुणैः ॥ ६१॥ वेद्यदि। मम चेतसि । परम्' भास्मतत्वम् । श्रास्ते तिष्ठति । किंलक्षणं पर तखम् । भशेषवाञ्छाविलयेकरूप सर्ववाभ्लारहितम् । नृपश्रीः तृणम् । तस्यां राजलक्ष्म्याम् । किमु नचिम किं कथयामि । मम भाखण्डलसंपदोऽपि म कार्यम् ॥ १२ ॥ इति निश्चयपचाशत् समाप्ता ॥ १॥ अवलोकन करता है ॥ ५८ ॥ मैं कर्मसे संयुक्त हो करके भी श्रीगुरुदेयके चरणोंके प्रसादसे मुक्त जैसा ही हूं, अत्यन्त दरिद्र होकर भी लक्ष्मीवान् ई, तथा तपसे दुःखी होकर भी सुखी हूं ॥ विशेषार्थतत्वज्ञ जीव विचार करता है कि यद्यपि मैं पर्यायकी अपेक्षा कर्मसे सम्बद्ध हूं, दरिद्री हूं, और तपसे दुःखी भी हूं तथापि गुरुने जो मुझे शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध कराया है उससे मैं यह जान चुकाहूं कि वास्तवमें न मैं फर्मसे सम्बद्ध ई, म दरिद्री ई, और न तपसे दुःखी ही हूं । कारण यह कि निश्चयसे मैं फर्मबन्धसे रहित, अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित, एवं परमानन्दसे परिपूर्ण हूं । ये पर पदार्थ शुद्ध आत्मसरूपपर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते हैं ॥ ५९ ॥ मुझे ज्ञानके सिवाय अन्य कुछ भी कार्य नहीं है। अन्य जो कुछ भी दिखता है वह फर्ममलसे दिखता है । जैसे- नटोंका फाष्ठमय पुरुष (कठपुतली) यंत्रकी डोरीके खींचनेसे नाचता है । विशेषार्थ-जिस प्रकार नटके द्वारा कठपुतलीके यंत्रकी डोरीके खींचे जानेपर वह फठपुतली नाचा करती है उसी प्रकार प्राणी कर्मरूप डोरीसे प्रेरित होकर चतुर्गतिस्वरूप संसारमें परिभ्रमण किया करता है, निश्चयसे देखा जाय तो शीब फर्मबन्धसे रहित शुद्ध ज्ञासा द्रष्टा है, उसका किसी भी बाह्य पर पदार्थसे प्रयोजन नहीं है ॥ ६० ) पानन्दी सूरिका आश्रय लेकर अपनी शक्ति ( वाचक शक्ति) से बस्तुके गुणोंको सूचित करनेवाले कुछ शब्दोंके द्वारा यह निश्चयपंचाशत्' प्रकरण रचा गया है ।। ६१ ॥ यदि मेरे मनमें समस्त इच्छाओंके अभावरूप अनुपम स्वरूपवाला उत्कृष्ट आत्मतत्त्व स्थित है तो फिर राजलक्ष्मी तृणके समान तुच्छ है । उसके विषयमें तो क्या कहूं, किन्तु मुझे तो सब इन्द्रकी सम्पत्तिसे भी कुछ प्रयोजन नहीं है ॥ ६२ ॥ इस प्रकार निश्चयपंचाशत् अधिकार समाप्त हुआ ॥ ११ ॥
१भाऋषियम, मानभवण । २श खमतिरोन्ममा1ि.भाटि। ५.शसति मम मन्तकरणे परं ।शभस्ति ।