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पागन्दि-पशिविर
18458११-०८645) ब पर दो मुख मुक्को भवेत्सदात्मानम् ।
पाति वदीयेन पथा वदेव पुरमभुते पाया ४८ ॥ 546) Kailwal सायमापानवाभिवानन्य।
भास्स परस्येव च विकारपरिवर्जितः सततम् ॥४९॥ 647 ) तखापति पत्र सम्धे भुसभुवि मस्यापगालियावती।
विनितचा दूरादपि झगिति' स्थानमाश्रयति ॥ ५० ॥ 648 ) तनमत ग्रहीताखिसकाउत्रयगतजमध्यव्याप्ति ।।
मास्तमेति सहसा सकलो ऽपि हि वाक्परिस्पन्दः॥५१॥ 549) मत दिनाखिसविकल्पजालद्रुमाणि परिकलिते ।
यत्र वहन्धि विदग्धा ग्भवनानीव दयानि ॥ ५ ॥ नाममासात् विसं फरमानन्दाम्बित करते ॥४७॥ सदा सर्वदा भारमान पर्व परमन् परः भवेत् । मुख पश्मन मुक्का भवेत् । पान्या पविकः । वन पथ मार्गेम बावि तदेव पुरै नगरम् । मभुते प्राप्नोति ॥ ४५ ॥ बहिः वाघम् । मन्तः अम्बन्तरम् । मा गा मा मया । भो साम्पसुपापामवार्षितानन्छ । तपा कारख सिध। तया कपम् । यथा विकारपरिवर्जितः सतवं भवति । तसर जयति । का वो साले सति । मस्यापणा मतिनी । भुतभुवि भागमभूमौ । मतिधायन्ता, इरादपि विनिता म्याधुटिता । विति देगेन । स्थानम् भाश्रयति ।। ५.॥ तत् भास्मज्योतिः से रोकाः यूर्य नमत । जना मात्मम्मोतिवि। सम्तोऽपि वापरिस्पन्दः पवनसमूहः । सहसा मखम् एति अस्तै गच्छति । विलक्षणं ज्योतिः । रहीत किमयमतजमायल म्याप्तिः मस्मिन् तत् म्याति ॥५१॥ मो भव्याः । तमत्वम् । सूर्य नमत । वत्र आत्मनि वाले परिकलिते सति झावे सति । विदग्धाः पषिताः । वनवनानि इस हदयानि वहन्ति धारयन्ति । 'कस्तानि हृदयानानि । बैतन्यसाई, उसके सिवाय दूसरा कोई भी पदार्थ मेरा न तो भूत कालमें मा, म वर्तमानमें है, और न भविष्य में होगा। इस प्रकार जर यह मन अद्वैतकी भावनासे रखताको प्राप्त हो जाता है तब जीवको परमानन्दस्वरूप पद प्राप्त होता है ।। १७ ॥ जो जीव भात्माको निरन्तर कर्मसे बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है वह मुरू हो जाता है । ठीक है-पथिक जिस नगरके मार्गसे जाता है उसी नगरको वह प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ हे समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राय गारमन् । तू बाप तत्त्व अथवा अन्तस्तत्त्वमें मत जा। तू जिस प्रकारसे भी निरन्तर विकारों से रहित होता है उसी प्रकारसे स्थित हो ज्य ॥ १९॥ जिस चैतन्यस्वरूपके प्राप्त होनेपर आगमरूप पूभिवीके ऊपर वेगसे दौड़नेवाली बुद्धिरूपी नदी दूरसे लौटकर शीघ्र ही अपने स्थानका आश्रय लेती है वह चैतन्य स्वरूप जयवन्त रहे ।। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब तक चैतन्य स्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है सभी तक बुद्धि आगमके अभ्यासमें प्रवृत्त होती है। किन्तु जैसे ही उक्त चैतन्य स्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है वैसे ही वह बुद्धि मागमकी ओरसे विमुल होकर उस चैतन्य स्वरूपमें ही रम जाती है। इसीसे जोक्को साधतिक सुखकी प्राप्ति होती है ॥ ५० ॥ जिस आत्मज्योतिमें तीनों काल और तीनों लोकोंक सब ही पदार्थ प्रतिमासित होते है तथा जिसके प्रगट होनेपर समस्त ही वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती है उस आत्मज्योतिको नमस्कार करो ।। ५१ ॥ जिस आत्मतेजके आन लेनेपर चतुर जन जले हुए वनोंके समान विनाशको प्राप्त हुए समस्त विकल्पसमूहरूप वृक्षोंसे युक्त हृदयोंको धारण करते हैं उस अात्मतेजके लिये नमस्कार करो ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार बनमें अमिके ला जानेपर सब वृक्ष जलकर नष्ट
शमुख्। २श टिदि। मसान' पति नास्ति। मामी नास्ति। ५ 'मस्त नास्ति। - भूतानि इसावि संदों नारिख ।