________________
पअनन्दि-पञ्चविंशतिः
[680 : १२-२१अस्मिभेष तपस्ततः शिवपद तत्रैव साक्षात्सुखं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुर्यारो निर्मलम् ॥ २१ ॥ ... .. 681) उप मुनियमनन्दिभिपजाद्वाभ्यां युतायाः शुमा
सवृत्तीषषविशतेकवितधागम्मिता पर्तिता। निन्धैः परलोकदर्शनाते प्रोपतपोवार्धकै
श्वेतश्चक्षरमरोगशमनी वर्तिः सदा सेव्यताम् ॥ २२॥ नरत्वे । तपः कार्यम् । सप्तः तपसः सकाशात् । शिवपदं भवेत् । संत्र शिवपये । साक्षात् सुखम् । सौख्यायाँ नरैः । चेतस्मि इति विचिन्त्य निर्मल तपः कुर्यात् ॥ २१॥ प्रोद्यत्तपोवाकः प्रकाशतपोरदैः । निन्पैः मुनिभिः । परलोकदर्शनकृते कारणाय । मएसौषधविंशतः वर्तिः सदा सेव्यताम् । हिलक्षणायाः सञ्चारित्रौषधविशतेः । द्वाभ्यो युतायाः । सा इयं वर्तिः । मुनिपग्रनन्दिभिषजा वचन । उता कयिता। शुभा श्रेष्ठा । पुनः किलक्षणा बसिः । उचितवाक् अर्धाम्भसा वर्तिता मर्दिता । पुनः किंलक्षणा वर्तिः । वेतश्चक्षुरनारोगशमनी मनोनेत्रसंवन्धिन कन्दर्प विनाशनशीला ॥ २२ ॥ इति श्रीब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः समाप्ता ॥ १२ ॥ है, तथा जिसमें वृद्धावस्थाके कारण बुद्धि प्रायः कुण्ठित हो जाती है; उस मनुष्य पर्यायमें ही तप किया जा सकता है । तथा मोक्षपदकी प्राप्ति इस तपसे होती है और वास्तविक सुख उस मोक्षमें ही है। यह मनमें विचार करके मोक्षसुखाभिलाषी मनुष्यको इस दुर्लभ मनुष्य पर्यायमें निर्मल तप करना चाहिये ॥ २१ ॥ दोसे अधिक उत्तम बीस छन्दों ( पद्यों) रूप औषधि (बाईस श्लोकोंमें रचित यह ब्रह्मचर्य प्रकरण ) की जो यह बत्ती मुनि पद्मनन्दीरूप वैद्यके द्वारा बतलायी गई है, श्रेष्ठ है, योग्य शब्द एवं अर्थतय जलसे जिसका उद्वर्तन किया गया है, तथा जो चित्तरूप चक्षुके कामरूप रोगको शान्त करनेवाली है उसका सेवन तपोवृद्ध साधुओंको परलोकके दर्शन के लिये निरन्तर करना चाहिये ॥ विशेषार्थयहां श्री पद्मनन्दी मुनिने जो यह बाईस श्लोकमय ब्रह्मचर्य प्रकरण रचा है उसके लिये उन्होंने औषधिकी बत्ती (एईमें औषधिका प्रयोग कर आंखमें लगाने के लिये बनाई गई बत्ती अथवा अंजन लगानेकी शलाई) की उपमा दी है । अभिप्राय उसका यह है कि जिस प्रकार उत्तम वैद्यके द्वारा बतलाये गये श्रेष्ठ मंजनको शलाकाके द्वारा आखोंमें लगानेपर मनुष्यकी आखोंका रोग ( फुली आदि) दूर हो जाता है और तब यह दूसरे लोगोंको स्पष्ट देखने लगता है, इसी प्रकार जो भन्य जीव मुनि पमनन्दीके द्वारा उत्तमोत्तम शब्दों और अर्थका आश्रय लेकर रचे गये इस प्रश्नचर्य प्रकरणका मनन करते हैं उनके चित्तका कामरोग (विषयवांछा ) नष्ट हो जाता है और तब वे मुनिव्रतको धारण करके परलोक ( दूसरे भव ) के देखनेमें समर्थ हो जाते हैं । तात्पर्य यह कि ऐसा करनेसे दुर्गतिका दुःख नष्ट होकर उन्हें या तो मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है या फिर दूसरे भवमें देवादिकी उत्तम पर्याय प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ इस प्रकार नामचर्यरक्षावर्ती नामका अधिकार समाप्त हुआ ॥ १२ ॥
१ मोक्षार्थीति । २ मोक्षार्थीनरम् ।