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१३. बाबामस्तोत्रम् 691) तिस्थत्तणमामपणो मेक तुह अम्मणहाणजलजोए ।
से तस्स सूरपमुही पयाहि मिण कुपति सया ॥ १० ॥ 692) मेसिरे पडणुच्छलियणीरतारणपणडदेवाण ।
त वि तुह हाणं तह जह साहमासि संकिरणे ॥ ११॥ EAR ) णा ह जमा दिगो शानिय नमाणस्त।
वेल्लिरभुयाहि भग्गा तब अषि भंगुरा मेहा ॥ १२॥ 694) जाण पहुपहिं वित्ती जाया कप्पडुमेहि तेहि विणा ।
पकेण वि ताण तए पयाण परिकप्पिया गाह ॥ १३ ॥ इन्द्रेण । सुररालय मन्दिर । सुराचलं ] गमता ॥ ९ ॥ भो जिन । तव जन्मलानजलयोगेन मेस्त्रीयत्वम् मापनः प्रातः । तत् तस्मात् कारणात् । सूर-सूर्गप्रमुखाः देवाः सदाकाले तस्य मेरोः प्रदक्षिणां कुर्वन्ति ॥ १०॥ मेशिरसि मस्तके सब तत् जन्ममान तथा से जातं यथा पतनोच्छलननीरताउनवशात् प्रणष्टदेवानां नमः कीर्णम् आश्रितं म्याप्तं जातम् ॥ १॥ भो नाच । तघ जन्मनाने मेरौ हरेः इन्द्रस्य नृत्यमानस्य स्फालितभुजाभिः तदा भामाः मेयाः अद्यापि मराः खण्डिता रमन्ते ।। १२ ॥ भो नाप । यासा प्रजाना बहुभिः कल्पहमैः कृत्तिर्जाता उदरपूर्ण जातम् । तैर्बिना कल्पद्रुमैः विना। तासां प्रजानाम् । एकेनापि
है जिन 1 उस समय चूंकि मेरु पर्वत आपके जन्माभिषेकके जलके सम्बन्धसे तीर्थस्वरूपको प्राप्त । हो चुका था, इसीलिये ही मानो सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषी देव निरन्तर उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं
॥१० ॥ जन्माभिषेकके समय मेरु पर्वतके शिखरपर नीचे गिरकर ऊपर उच्छलते हुए जलके अभिघातसे कुछ खेदको प्राप्त हुए देवोंके द्वारा आपका यह जम्माभिषेक इस प्रकारसे सम्पन्न हुआ कि जिससे आकाश उन देवों और जलसे व्याप्त हो गया ।। ११ ।। हे नाथ ! आपके जन्माभिषेकमहोत्सवमें मेरुके ऊपर नृत्य करनेवाले इन्द्रकी कम्पित (चंचल) भुजाओंसे नाशको प्राप्त हुए मेघ इस समय मी मंगुर (विनाधर , देखे जाते हैं ॥ १२ ॥ हे नाथ ! भोगभूमिके समय जिन प्रजाजनोंकी आजीविका बहुत-से कल्पवृक्षोंके द्वारा सम्पन्न हुई थी उनकी वह आजीविका उन कल्पवृक्षोंके अभावमें एक मात्र आपके द्वारा सम्पन्न (प्रदर्शित ) की गई यी ॥ विशेषार्थ- पूर्वमें यहां ( भरतक्षेत्रमें ) जब भोगभूमिकी प्रवृत्ति थी तब प्रजाजनकी आजीविका बहुत-से ( दस प्रकारके ) कल्पवृक्षोंके द्वारा सम्पन्न होती थी । परन्तु जब तीसरे कालका अन्त होनेमें पल्यका आठवां भाग शेष रहा था तब वे कल्पवृक्ष धीरे धीरे नष्ट हो गये थे। उस समय भगवान् आदि जिनेन्द्रने उन्हें कर्मभूमिके योभ्य असि-मसि आदि आजीविकाके साधनोंकी शिक्षा दी थी। जैसा कि खामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है-प्रजापतिर्या प्रथमं जिजीविषः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।। अभिप्राय यह है कि जिन ऋषभ जिनेन्द्रने पहिले कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर आजीविकाके निमित्त व्याकुलताको प्राप्त हुई प्रजाको प्रजापतिके रूपमें कृषि आदि छह कर्मोकी शिक्षा दी थी वे ही ऋषभ जिनेन्द्र फिर वस्तुस्वरूपको जानकर संसार, शरीर एवं मोगोंसे विरक्त होते हुए आश्चर्यजनक अभ्युत्यको प्राप्त हुए और समस्त विद्वानोंमें अग्रेसर हो गये ॥ ७. स्व. स्तो. २. इस प्रकारसे जो प्रजाजन भोगभूमिके कालमें अनेक कल्पवृक्षोंसे आजीविकाको सम्पन्न करते थे उन्होंने कर्मभूमिके प्रारम्भमें एक मात्र उक्त ऋषभ जिनेन्द्रसे ही उस आजीविकाको सम्पन्न किया थावे ऋषभ जिनेन्द्रसे असि, मसि व कृषि आदि कर्मों की शिक्षा पाकर आनन्दपूर्वक आजीविका करने लगे
कश तरास। २क सुरपमुरा। प्रतिपाठोऽयम् । मममासिवं कि, 'मासिय विष्णं च मासिय किणं । ४ मशमुवादि। ५कसुरसूर्यप्रमुखा।