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[१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः] 660) भोग्य जम्ति के रिपुन लोकाविमा योजन
शाक तेषामपि यम पससि र ५ः समारोतः । सोऽपि प्रोतविक्रमः स्मरमटः शान्तात्ममिलीलया
थैः शनामवर्जितैरपि जितलेभ्यो यतिभ्यो नमः ॥१॥ 661 ) श्रात्मा प्रम विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्य पर _स्वाहासंगविवर्जितकमनसतहमचर्य मुनेः।
एवं सत्यबळाः स्वमावभगिनीपुरीसमाः प्रेक्षते
वृद्धाचा विजितेन्द्रियो यदि सवा समसारी मवेत् ॥२॥ 662) स्वप्ने स्यादतिचारिता यदि तवा तचापि शास्रोदित
प्रायश्चित्तविधि करोति रजनीभागानुगत्या मुनिः । तेभ्यः यतिभ्यः । नमः नमस्कारोऽस्तु । यैः यतिभिः । सोऽपि । प्रयेद्तविकमः उत्पमविक्रमः । स्मरभटः लीलया जितः । #लक्षणैर्य तिभिः । शान्तात्मभिः क्षमायुक्तः । पुनः किलक्षणैः । शबप्रहपर्जितैः अपि कामो जितः । येन कामेन । सेवा राज्ञाम् । अपि । वक्षसि हृदये । वृत कठिनं रोपः बाणः । समारोपितः स्थापितः । तेषां केवाम। ये क्षेचन राजानः माशेपेण रिपुकुलं जयन्ति । किंलक्षणाः राजानः लोकाधिपाः ॥ ॥ आत्मा ब्रह्म विवियोधनिलयः । तत्र आत्मनि । यन्मुनेः । चर्य प्रवर्तनम् । तत्परं ब्रह्मचर्यम् । किंलक्षणस्य मुनेः । ख-अस्म शरीरस्य 1 आसंगात् निकटात् । विवर्जितकमनसः । एवं सति अवलाः अद्धाश्चाः यदि खमातृभगिनीपुत्रीसमराः प्रेक्षते तदा स मुनिः अग्रवारी भवेत् । डिलक्षणः मुनिः विजितेन्द्रियः ॥२॥ तत्र ब्रह्मचर्ये । यदि खपि भतिचारिता । स्थानवेत् । तदा मुनिः । रजनीभागानुगत्या राश्रिप्रहर-मनुसारेण शास्त्रोविर्त प्रायवित्तविधि करोति । पुमः । यदि चेत् । जाप्रतोऽपिहरागोवेकतया दुराशयतया
बो कितने ही राजा भूकटिकी कुटिलतासे ही शत्रसमूहको जीत लेते है उनके भी वास स्थलों जिसने दृढ़तासे बाणका आयात किया है ऐसे उस पराक्रमी कामदेवरूप सुमटको बिन शान्त मुनियोंने विना शसके ही अनायास जीत लिया है उन मुनियों के लिये नमस्कार हो ॥ १ ॥ मम शब्दका अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मामें लीन होनेका नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनिका मन अपने शरीरके भी सम्बन्धमें निर्ममत्व हो चुका है उसीके वह प्रमचर्य होता है । पेसा होनेपर यदि इन्द्रियविजयी होकर वृद्धा आदि (युक्ती, वाला ) नियोको क्रमसे अपनी माता, बहिन और पुत्रीके समान समझता है तो वह ब्रह्मचारी होता है । विशेषार्थ-व्यवहार और निश्चमकी अपेक्षा प्रमचर्यके दो मेद किये जा सकते हैं । इनमें मैथुन क्रियाके त्यागको व्यवहार प्रमचर्य कहा जाता है । वह भी अणुवत और महानतके भेदसे दो प्रकारका है । अपनी पत्नीको छोड़ शेष सब सियोंको यथायोग्य माता, बहिन और पुत्रीके समान मानकर उनमें रागपूर्ण व्यवहार न करना; इसे ब्रमचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष मी कहा जाता है । तथा शेष नियोंके समान अपनी पत्नीके विषयमें भी अनुरागबुद्धि न रखना, यह आचर्यमहानत कहलाता है जो मुनिके होता है । अपने विशुद्ध आत्मस्वरूपमें ही रमण करनेका नाम निधय असचर्य है। यह उन महामुनियोंके होता है जो अन्य बाय पदार्थोके विषयमें तो क्या, किन्तु अपने शरीरके मी विषयमें निःस्पृह हो चुके हैं । इस प्रकारके अमचर्यका ही स्वरूप प्रस्तुत लोकमें निर्दिड किया गया है ॥ २ ॥ यदि स्वममें भी कदाचित् ब्रमचर्यके विषय में अतिचार (वोष ) उत्पन होता है तो मुनि उसके
१ शस्त्रमाणवर्जितैः। २ाषा केवाम्नाखि।
पान. १५