Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ રવા चन्दि-पञ्चविंशति 614) अस्पृष्टमषर्द्धमन्यमयुतमविशेषमभ्रमोपेतः । थः पश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धमयनिष्ठः ॥ १७ ॥ 613 ) शुद्धाशुद्धं ध्यायनामोत्यशुद्धमेव स्वम् । अनयति हेस्रो हैमं लोहालो [लौ]ई मरः कटकम् ॥ १८ ॥ 616) सानुष्ठानविशुद्धे बोधे जुम्मिले कुतो जन्म । उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैशम् ॥ १२ ॥ 617) आत्मभूदि कर्मबीजाविचतर्यत्फलं फलति जन्म । मुक्तत्यर्पितास वाह्यो भेदामोदावेन ॥ २० ॥ 618) अमलात्मजल समर्थ करोति मम कर्मकर्व मस्तदपि । का भीतिः सति निश्चित मेदकरज्ञान कतकफले ॥ २१ ॥ [614121-10 मरः । सर्व उपद्रव सहः सहनशीलः । पुनः वनस्थः वने तिष्ठति इति वनस्थः ॥ १६ ॥ खद्ध इति निश्चितम् । स पुमान् शुब नमनिहः । यः भभ्यः । आत्मानम् अस्पृष्टं पश्यति । किंवत् । श्रमलिनीदलवत्। कस्माद । नीरात् कमलिनीदलं भिनम् । किंलक्षणम् आत्मानम् । अवद्धं बन्धनरहितम् । पुनः किंलक्षणम् आत्मानम् । अनन्यम् अद्वितीयम् । पुनः किलक्षणम् आत्मामम् । अयुतं मित्रम् | पुनः किंलक्षणम् आत्मानम् । अविशेष पूर्णम् । किंलक्षणः भग्यः । अनमोपेतः भ्रमरहितः ॥ १७ ॥ शुखात् शूलादिभ्यानात् । स्वम् आत्मानम् । ध्यायन् । शुद्धं तस्वम् आप्नोति । अशुद्धं ध्यायन् अशुद्धं तत्त्रम् आनोति । मरा हेनः सुवर्णात् । हे सुवर्णमयम् । कटकं जनयति उत्पादयति । लोहात् लोहमय कटकम् उत्पादया ॥ १७ ॥ वृम्भते सति प्रसारिते सति । कुतो जन्म संसारः कुतः । किंलक्षणे हग्यो । सानुष्ठानेन चारित्रेण विशुद्धे पवित्रे । तत्र हान्तम् आइ । गमस्तिमालिनि सूर्ये उदिते सति। नैशं तमः रात्रिसंबन्धितमः । किं न विनश्यति । अपि तु नश्यति ॥ १९ ॥ आत्मभुवि भ्रात्मभूमौ । कर्मबीजात् चित्ततयः वृक्षः । जन्मसंसारफले फलति । मुक्त्यर्थिना स चित्ततः मेदज्ञानोप्रदानेन दाह्यः वहनीयः ॥ २० ॥ मम अमलम् आत्मजलं कर्मकर्दमः । समले मलयुतम् । करोति । तदपि निश्चितमेदकरज्ञानकतकरु + सकता है ॥ १६ ॥ जो भव्य जीव भ्रमसे रहित होकर अपनेको कर्मसे अस्पृष्ट, बन्धसे रहित, एक, परके संयोगसे रहित तथा पर्यायके सम्बन्धसे रहित शुद्ध द्रव्यस्वरूप देखता है उसे निश्वयसे शुद्ध नयपर निष्ठा रखनेवाला समझना चाहिये ॥ १७॥ जीव शुद्ध निश्वयनय से शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ शुद्ध ही आत्मखरूपको प्राप्त करता है तथा व्यवहारनथका अवलम्बन लेकर अशुद्ध आत्माका विचार करता हुआ अशुद्ध ही आत्मस्वरूपको प्राप्त करता है । ठीक है - मनुष्य सुवर्ण से सुवर्णमय कड़ेको तथा लोहसे लोहमय ही कड़ेको उत्पन्न करता है ||१८|| चरित्रसहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके वृद्धिंगत होनेपर भला जन्म-मरणरूप संसार कहांसे रह सकता है ! अर्थात् नहीं रह सकता। ठीक है- सूर्यके उदित होनेपर क्या रात्रिका अन्धकार नष्ट नहीं होता है ! अवश्य ही वह नष्ट हो जाता है ॥ १९ ॥ आत्मारूप पृथिवीके ऊपर कर्मरूप बीजसे आविर्भूत हुआ यह चित्तरूप वृक्ष जिस संसाररूप फलको उत्पन्न करता है उसे मोक्षाभिलापी जीवको भेदज्ञानरूप तीक्ष्ण तीव्र अभिके द्वारा जला देना चाहिये || २० || यद्यपि कर्मरूपी कीचक मेरे निर्मल आत्मारूप जलको मलिन करता है तो भी निश्चित भेदको प्रगट करनेवाले ज्ञान ( भेदज्ञान ) रूप निर्मली फलके होनेपर मुझे उससे क्या भय है ! अर्थात् कुछ भी भय नहीं है विशेषार्थ - जिस प्रकार कीचड़ से मलिन किया गया पानी निर्मली फलके डाल देनेपर स्वच्छ हो जाता है उसी प्रकार कर्मके उदयसे उत्पन्न दुष्ट धादि विकारोंके द्वारा मलिनताको प्राप्त हुई आत्मा स्व-परभेदज्ञानके द्वारा निश्वयसे ॥ निर्मल हो जाती है । इसीलिये विवेकी (भेदज्ञानी ) जीवको कर्मकृत उस मलिनताका कुछ भी भय नहीं रहता है | २१ ॥ १ मबंध २श कस्मात् नीराद। किं लक्षणं । अर्थ ४ सवाः।

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328