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पचनन्दि - पञ्चविंशतिः
494) या केसाप्यतिगाढगाढममितो दुःखप्रदेः प्रहैः बोध नये रुषा घनतरैरापावमा मस्तकम् । एकस्मिन् शिथिलेऽपि तत्र मनुते सौभ्यं स सिद्धाः पुनः किं न स्युः सुखिनः सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्यग्धः ॥ ९ ॥ 495) सर्वज्ञः कुरुते परं तनुभृतः प्राचुर्यतः कर्मणां
रेणूनां गणनं किला घिवसतामेकं प्रदेशं घनम् । इत्याशास्त्रथिलासु बखमहसो दुःखं न कस्मान्मह
म्मुक्तस्यास्य तु सर्वतः किमिति नो जायेत सौख्यं परम् ॥ १० ॥
भः । अपि तु सुखिनः भवेयुः । ये सिद्धाः समस्त कर्मविषमध्यान्तप्रबन्धच्युताः समस्त कर्मबन्धनरहिताः । ये सिद्धाः सद्बोधाः । ये सिद्धाः त्रिलोकाधिपाः ॥ ८ ॥ यः मरः केन अपि पुरुषेण दषा' कोथेन । अन्यैः प्रप्रहैः रज्जुभिः । अभितः सर्वत्र । अतिगाढ. गाढम् आपाद' आमस्तकं बद्धः । किंलक्षणैः प्रहैः । पनतरैः दुःखप्रदेः । तत्र तेषु बन्धनेषु । एकस्मिन् बन्धने शिथिले सति । स नरः बद्धनर । सौख्यं मनुते । पुनः सिद्धाः बाह्यान्तरैः बन्धनैः विरहिताः सदः सुखिनः किं न स्युः भवेयुः । अपि तु सुखिनः भवेयुः ॥९॥ किल्ल इति सत्ये । तनुम्भृतः जीवस्य । कर्मणां रेणूनां गणनं परं प्राचुर्यतः सर्वशः कुरुते । किंलक्षणानां कर्मरेणूनाम् । एकैकप्रदेश नं निविडम् अधिवसताम् इति अखिला अशा परमाणुषु । मद्धमाद्दसः कर्मपरमाणुभिः वेष्टितैजीवस्य । कस्मान्महद्दुःखं न । अपि तु दुःखम् अस्ति । अस्य मुक्तस्य कर्मबन्धनरहितस्य । सर्वतः परं सौख्यं किमिति नो आयेत । अपि
भला जो सिद्ध जीव समस्त कर्मरूपी घोर अन्धकारके विस्तारसे रहित हो चुके हैं वे तीनों लोकों के अधिपति होकर उत्तम ज्ञान ( केवलज्ञान ) और अनन्त सुखसे सम्पन्न कैसे न होंगे? अवश्य होंगे | ( विशेषार्थएकेन्द्रिय जीवोंके जितनी अधिक मात्रामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका आवरण है उससे उत्तरोत्तर द्वीन्द्रियादि जीवोंके वह कुछ कम है। इसीलिये एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय और उनकी अपेक्षा त्रीन्द्रियादि जीव उत्तरोत्तर अधिक ज्ञानवान् एवं सुखी देखे जाते हैं। फिर जब वही कर्मोंका आवरण सिद्धोंके पूर्णतया नष्ट हो चुका है तब उनके अनन्तज्ञानी एवं अनन्तसुखी हो जानेमें कुछ भी सन्देह नहीं रहता ॥ ८ ॥ | जो मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यके द्वारा क्रोधके वश होकर पैरसे लेकर मस्तक तक चारों ओर ! दुःखदायक हढ़तर रस्सियोंके द्वारा जकड़ कर बांध दिया गया है वह उनमें से किसी एक भी रस्सीके शिथिल होनेपर सुखका अनुभव किया करता है । फिर भला जो सिद्ध जीव बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही बन्धनोंसे रहित हो चुके हैं वे क्या सदा सुखी न होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे ॥ ९ ॥ प्राणके एक प्रदेशमें सघनरूपसे स्थित कर्मोंके प्रचुर परमाणुओंकी गणना केवल सर्वज्ञ ही कर सकता है। फिर जब स दिशाओंमें अर्थात् सब ओरसे इस प्राणीका आत्मतेज कर्मोंसे सम्बद्ध ( रुका हुआ ) है तब उसे महान् दुःख क्यों न होगा ? अवश्य होगा। इसके विपरीत जो यह सिद्ध जीव सब ओरसे ही उक्त कर्मों से रहित हो चुका है उसके उत्कृष्ट सुख नहीं होगा क्या ? अर्थात् अवश्य होगा || विशेषार्थ – अभिप्राय यह है कि इस संसारी प्राणी एक ही आत्मप्रदेशमें इतने अधिक कर्मपरमाणु संबद्ध हैं कि उनकी गिनती केवल सर्वज्ञ ही कर सकता है, न कि हम जैसा कोई अल्पज्ञ प्राणी । ऐसे इस जीवके सब ही ( असंख्यात ) आत्मप्रदेश उन कर्म परमाणुओं से संबद्ध हैं । अब मला विचार कीजिये कि इतने अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओंसे बंधा हुआ यह संसारी प्राणी कितना अधिक दुखी और उन सबसे रहित हो गया सिद्ध जीव
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१श 'स्पा' नास्ति । २ मा आपदां । ३ स बेष्टितो। ४ श यस्य ।