Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 205
________________ mprapannamro -527:९-१३] ९. मालोचना 524) सर्वो ऽन्यत्र मुहुर्मुनिपते लोकैरसंव्यर्मित न्यकाव्यकविकस्पजालकलिता प्राणी भवेत् संखती । तत्तापरियं सदेव निधितो दोपैर्षिकरूपानुगः प्रायवित्तमियत् कुतः भुतगत शुद्धिर्मवस्तानियो । १० ॥ 525 ) भाषातःकरणेन्द्रियाणि विधिवत्संहस्य बाजाश्रया देकीकस्य पुनस्स्पया सह शुचिहानकसम्मूर्तिना। मिसंगः श्रुतसारसंगसमतिः शासो रहा प्राप्तवान् यस्व देष समीझते स लभते पम्यो भवत्सनिधिम् ॥ ११ ॥ 526 ) त्यामासाथ पुराहतेन महता पुण्येन पूज्य प्रभु प्रझायेरपि यत्पदं न सुलभ तलभ्यते मिसितम् । भाईचाय परं करोमि किम घेतो भवत्सनिषा पचापि श्रियमाणमप्यतितरामेताविति ॥ १२॥ 587) संसा पपुसद निर्वाणमेतकते स्वक्वार्यादि तपोवनं वयमितास्तत्रोजिनतः संशयः । निःशल्य विधे सस्मरहित इदन करणीयम् ॥ ९ ॥ भो जिनपते । मन्त्र लोके स्मृतौ । सौः अपि । प्राची जीवः । मुहुमुई वारंवारम् । बरुपैसोंके संख्यारहितः भोकप्रमाणैः । मित-प्रमितव्यय-श्रव्यषिकल्पनाले कलितः भवेत् । तामाकारणात् । ममं प्राणी । तादिः प्रमाणेः । दोषैः । सदैव निषितः मतः । किंलक्षणेः दोषैः । विकल्पानुगैः। यत्प्रायबित कुतः मुतगतम् । अपि तु म । तेषां दोषाणां भवत्संनिधः शरिः ॥ १॥ भो देव । यः त्वाम् । समीक्षते पत्यति । स धन्यः । भवस्वविधि समयः । निःसंगः परिग्रहरहितः । पुनः भूतसारसंगतमतिः। पुनः शान्तः । पुनः रह एकान्वें। प्राप्तन् । किसुरमा।बाबाश्रयात् बायपदार्थोस् । मावान्तःकरणेन्द्रियाणि विधिवत् सत्य इन्द्रियमनोव्यापारावि राम्] संकोच्य । पुनः स्त्रया सह एकीकृत्य । किंलक्षणेम स्वया। शुम्मिशानेकसन्मूर्तिना ॥ ११॥ भो बईन् । भो माया पुरातन महता पुण्येन । स्वामू । मासाद्य प्राप्य । निक्षित तत्पर पद लभ्यते प्राप्यते यत्पदं ब्रह्माघेरपि सुलभ न । फिलण श्वाम् । पूज्यं प्रभुम् । अई किरोमि । एततः भद्यापि । भवरसंनिधौ तव समीपे । ध्रियमाणमपि । भतितराम अतिशयेन 1 बहिः पाये । धावति ॥ १२ ॥ संसारः बहुःसादः । सुम्नपद निर्वाणम् । एतस्कृते निर्माणको कारणाय । पपम् नादि स्वक्त्या है जिनेन्द्र देव ! यहाँ संसारमें सब ही प्राणी वार वार असंख्यात लोक प्रमाण स्पष्ट और अस्पष्ट विकल्यों के समूहसे संयुक्त होते हैं । तथा उक्त विकल्पोंके अनुसार ये प्राणी निरन्तर उतने ( असंख्यात लोक प्रमाण) ही दोषोंसे व्याप्त होते हैं । इतना प्रायश्चित्त भला आगमानुसार कहांसे हो सकता है ! अर्थात् नहीं हो सकता । अत एव उन दोषोंकी शुद्धि आपके संविधान अथवा आराधनसे होती है ॥ १० ॥ हे देव । जो भव्य जीव भाव मन और मावेन्द्रियोंको नियमानुसार चाय वस्तुओंकी ओरसे हटाकर तथा निर्मल एवं ज्ञानरूप अद्वितीय उत्तम मूर्तिके धारक आपके साथ एकमेक करके परिग्रहरहित, आगमके रहस्यका ज्ञाता, शान्त और एकान्त स्थानको प्राप्त होता हुआ आपको देखता है वह प्रशंसनीय है। वही आपकी समीपताको प्राप्त करता है ।। ११ ॥ हे अरहंत देव । पूर्वकृत महान् पुण्यके उदयसे पूजनेके योग्य आप जैसे स्वामीको पा करके जो पद ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है वह निश्चित ही प्राप्त किया जा सकता है । परन्तु हे नाथ । मैं क्या करूं? आपके संनिधानमें बलपूर्वक लगानेपर मी यह चित्त आज भी बाम पदार्थोकी ओर दौड़ता है ॥ १२ ॥ संसार बहुत दुःखदायक है, परन्तु मोक्ष सुखका स्थान है । इस मोक्षको प्राप्त करनेके कर समीक्ष्यते। २६ दोषैः बिकल्पानुगैः सदैव निचितः भृतः श्ययायधिन। मकश समीक्ष्यते। ४सयकां। ५ श भावान्तःकरणानि । म निश्चितं परं पदं । पानं. ११

Loading...

Page Navigation
1 ... 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328