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पसनन्दि-पश्चविंशतिः 588) अपितेन बहुमा किमाभयेद
बुद्धिमानमलयोगसिद्धये । साम्यमेव साहलेसपाधिमिः
कर्मजाजनिविर्षितम् ॥ ४ ॥ 585 मामलावया याभन
भूरिजम्मकृतपापसंक्षयः। बोषपचरचयस्तु तरता
ऊपते हि जगतां पति नरम् ॥ ४२ ॥ 590) चिरस्वरूपपदलीनमानसो
या सदा सकिल योगिनायक। जीवराशिरसिलभिधात्मको
दर्शनीय इति यात्मर्सनिमः ॥ ४५ ॥ 591) अन्तरगयहिरयोगतः
कार्यसिबिरखिलेति योगिना । भासितव्यमनिशं प्रयक्षता खं परं साशमेव पश्यता || ४
पुस्पेण सकन संगत मिलित बखागते विनधरम् । रयते ॥४॥बहुना अल्पितेन किम् । बुद्धिमान अमलयोगसिवये साम्यमेव भावयेत् । किसक्षम साम्यम् । सकले कर्मशालजमितेः उपापिभिः । पञ्जित रहितम् ॥४॥ परमात्मनः नाममात्रकथयस अत्वा भूरिजमातपापसंक्षयः विनाशः भवति । रोघरतरुचयः पर्शनशानचारित्राणि । तव्रताः तस्मिनास्मनि गताः । मरे जगतां पति कुर्वते ॥४२॥ यः मुनिः । सहा चित्खरूपपदलीनमानसः । बिल इति सत्ये । स योगिनायक मवेत् । च पुनः। मखितः धीवराशिः विदारमः आत्मसनिमः । दर्शनीयः अवलोकनीयः ॥३॥अन्तराबाहिशगयोगतः मखिला कार्यसिद्धिः अस्ति इति हेतोः । योगिना मुनिना । अनिशम् । प्रयत्नतः । मासिवय स्थातम्पम् । किंलक्षणेन मुनिना । वं परम् । सशं
सब ही बाब पदार्थोंको नश्वर समझने लगता है ।। ४० ।। बहुत कहनेसे क्या ? बुद्धिमान् मनुष्यको निर्मल योगकी सिद्धिके लिये कर्मसमहसे उत्पन्न हुई समस्त उपाधियोंसे रहित एक मात्र समताभावका ही आश्रय करना चाहिये ॥ ४१ ।। परमात्माके नाम मात्रकी कथासे ही अनेक जन्मोंमें संचित किये हुए पापोंका नाश होता है तथा उक्त परमात्मामै खित ज्ञान, चारित्र और सम्यग्दर्शन मनुष्यको जगत्का अधीश्वर बना देता है ॥ ४२ ॥ जिस मुनिका मन चैतन्य स्वरूपमें लीन होता है वह योगियोंमें श्रेष्ठ हो जाता है। चूंकि समस्त जीवराशि चैतन्यस्वरूप है अतएव उसे अपने समान ही देखना चाहिये ।। ४३ ॥ सब कार्योकी सिद्धि अन्तरंग और बहिरंग योगसे होती है । इसलिये योगीको निरन्तर प्रयत्नपूर्वक स्व और परको समदृष्टि से देखते हुए रहना चाहिये । विशेषार्थ-योग शब्दके दो अर्थ हैं-मन, वचन एवं कायकी प्रति और समाधि । इनमें मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप जो योग है वह दो प्रकारका है-शुभ
और अशुभ । इनमें शुभ योगसे पुण्य तथा अशुभ योगसे पापका आसव होता है और तदनुसार ही जीवको सांसारिक सुख व दुखकी प्राप्ति होती है । यह दोनों ही प्रकारका योग शरीरसे सम्बद्ध होनेके कारण बहिरंग कहा जाता है । अन्तरंग योग समाधि है । इससे जीवको अविनश्वर पदकी प्राप्ति होती है । वहां
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१षप्रतिपाठोध्यम्, भयोगनायकः ।