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पचमन्दि पश्चविंशतिः
[418: ६-१७ 418) पचावयानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो षैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥१७॥ 414 ) गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते शानसोचनम् । समस्त रश्यते येन इम्तरेखेव निस्तुषम् ॥ १८ ॥ 415) ये गुरु नैव मन्यन्ते तनुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारी भवेत्तेषामुदित ऽपि दिवाकर ॥ १९ ॥ 416 ) ये पठन्ति म सछास्त्रे सहरुप्रकटीकतम् । तेऽन्याः सचक्षुषोऽपीह संभाव्यम्ते मनीषिभिः॥ 417) मन्येन प्रायशस्तेषां कर्णाध हदयानि च । चैरभ्यासे गुरोः शाल न भुतं नावधारितम् ।।२१।। 418) देशब्रतानुसारेण संयमोऽपि निवेष्यते । गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवहतम् ॥ २२॥ 419) पाज्य मार्स च मयं च मधूदुम्बरपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो रष्टिपूर्वका ॥२३॥ धर्मश्रवणं कर्तव्यम् ॥ ११ ॥ मुरैः पण्डितः । मन्यानि कार्याणि पश्चात् कर्तव्यानि । यतः कारणात् । धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुःपदार्थाना मध्ये । आदौ धर्मः । प्रकीर्तितः कथितः ॥१५॥ गुरोः प्रसादेन हवा शानझोपन लभ्यते । येन ज्ञानलोचनेम समतं निस्तुषे लोकालोई श्यते। का इन। हस्तरेखा स॥10॥ये श्रावकाः। गुरुं न मम्बन्। ये धावका हख गुरोः उपास्ति सेवाम् । न कुर्ववे। तेषां धापकामा । उदितेऽपि प्रकाशयुकेऽपि । दिवाकरे सूयें। अन्धकारः भवेत् ॥९॥ ये अशानिनः मूर्याः । सबछार समीचीन शान न पठन्ति । विलक्षण शास्त्रम् । सवप्रकटीकतम् । ते मूर्खाः । इह जगति संसारे। सचक्षुषः सुर्युका मपि । मनीषिमिः पतिः । अन्धाः । संभाव्यन्ते कथ्यन्ते ॥ २. ॥ अहम् एवं मन्ये । वेषी नराणाम् । प्रायशः बाहुल्येन। कःन । पुनः । तेषा नराप्पा हदयानि म । यः नरैः । गुरोः अम्मासे निकटे । शायं न श्रुतम् । यः नरैः शायन अवधारितम् ॥ २१॥ गृहस्थैः नरेः । देशमतानुसारेण सेपमोऽपि । निदेयते सेम्बते। येन कारणेन । तेम संयमेम व्रतम् । फलबत् सफलम् । जायते ॥ २२ ॥ मांस त्याज्यम् । च पुनः । मर्च माज्यम् । च पुनः । मधु त्याज्यम् । वन्दना करके धर्मश्रवण करना चाहिये ॥ १६॥ तत्पश्चात् अन्य कार्योंको करना चाहिये, क्योंकि, विद्वान् पुरुषोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषामि धर्मको प्रथम बतलाया है ॥ १७ ॥ गुरुकी ही प्रसन्नता से वह ज्ञान (केवलज्ञान ) रूपी नेत्र प्राप्त होता है कि जिसके द्वारा समस्त जगत् हाथकी रेखाके समान स्पष्ट देखा जाता है ॥ १८ ॥ जो अज्ञानी अन न तो गुरुको मानते हैं और न उसकी उपासना ही करते हैं उनके लिये सूर्यका उदय होनेपर मी अन्धकार जैसा ही है ॥ विशेषार्थ-- यह ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानकी प्राप्ति गुरुके ही प्रसादसे होती है । अत एव जो मनुष्य आदरपूर्वक गुरुकी सेवा-शुश्रूषा नहीं करते हैं वे अल्पज्ञानी ही रहते हैं। उनके अज्ञानको सूर्यका प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता । कारण कि वह तो केवल सीमित बाम पदार्थोके अवलोकनमें सहायक हो सकता है, न कि आत्मावलोकनमें । आत्मावलोकनमें तो केवल गुरुके निमित्तसे प्राप्त हुआ अध्यात्मज्ञान ही सहायक होता है ।।१९।। जो जन उत्तम गुरुके द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्रको नहीं पढ़ते हैं उन्हें बुद्धिमान् मनुष्य दोनों नेत्रोंसे युक्त होनेपर भी अन्धा समझते हैं ॥ २०॥ जिन्होंने गुरुके समीपमें न शास्त्रको सुना है और न उसको हृदयमें धारण भी किया है उनके प्रायः करके न तो कान हैं और न हृदय मी है, ऐसा मैं समझता हूं || विशेषार्थकानोंका सदुपयोग इसीमें है कि उनके द्वारा शाखोंका श्रवण किया जाय- उनसे सदुपदेशको सुना जाय । तथा मनके लाभका भी यही सदुपयोग है कि उसके द्वारा सुने हुए शास्त्रका चिन्तन किया जाय- उसके रहस्सको धारण किया जाय । इसलिये जो प्राणी कान और मनको पा करके भी उन्हें शास्त्रके विषयमें उपयुक्त नहीं करते हैं उनके वे कान और मन निष्फल ही हैं ॥ २१ ॥ श्रावक यदि देशव्रतके अनुसार इन्द्रियोंके निप्र और प्राणिदयारूप संयमका भी सेवन करते हैं तो इससे उनका वह व्रत ( देशवत) सफल हो जाता है । अभिप्राय यह है कि देशवतके परिपालनकी सफलता इसीमें है कि तत्पश्चात् पूर्ण संयमको मी धारण किया जाय ॥ २२ ॥ मांस, मध, शहद और पांच उदुम्बर फलों (ऊमर, कठूमर, पाकर,
बस ममि मूखाः मनीविलिः ।