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चयन्दिश
80) निवत्वं स्वतामुपागता मतिः सतां शुद्धनयावलम्बिनी । मेकं विशदं विवात्मकं निरन्तरं पश्यति तत्परं महः ॥ co 81) हर्निर्णीतयस्माद्वयविशदमहस्यत्र बोधः प्रवरेधः
शुद्धं चारित्रमत्र स्थितिरिति युगपन्धबिसकारि । बापाचार्थमेव त्रितयमपि परं स्याच्छुभो शशुभो वा बन्धः संसारमेयं श्रुतनिपुणधियः साधयस्तं वदन्ति ॥ ८१ ॥ 82) अजनकृतषाधाक्रोशदासाप्रियादा
अपि सति न विकारं यन्मनो याति साधोः ।
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गोचरखरूपं वर्तते वचनरतम् ॥ ४९ ॥ ये साधवः । तत्त्वम् आत्मस्वरूपम् । निरूप्य कथयित्वा । स्थिरताम् उपागतः स्थिरभाव प्राप्ताः । तेषां सुमीनां मतिः । तत्पर मदः निरन्तरं पश्यति । किंलक्षणा बुद्धिः । शुद्ध नयावलम्बिनी । किंलक्षणं महः । म खण्डरहितम् एकम् । पुनः विशदं निर्मलं चिदात्मकम् । सुनयः पश्यन्ति ॥ ८० ॥ आत्माविशद्महसि निणत्तिः दृष्टिः निर्णयं दर्शनं भवति । अत्र आत्मनि बोधः प्रबोधः शामं मवति । वत्र आत्मनि स्थितिः शुद्धं चारित्रं भवति । इति त्रितयमपि । युगपत् बन्धविध्वंसकारी[ रि] कर्मबन्धस्टकम् । त्रितयं बाह्य रत्नत्रयं व्यवहाररात्र माह्यार्थसूचक जानीहि । पुनः बाह्य रमत्रयं परं वा शुभो या अशुभ या वन्यः स्यात् । श्रुतः ॥ इति रत्नत्रयस्वरूपम् ॥ व्यथोत्तमं क्षमामार्दवार्जव सत्यशौच संयमतपस्त्यागामिन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः इति दशधर्मं निरूपयति । सा उत्तमा श्रेष्ठा क्षमा । मा क्षमा । शिवपयपथिकानां मोक्षमार्गे प्रवर्तकाना (?) मुनीनाम् । आदौ प्रथमम् । सत्सहायत्वमेति सहायत्वं गच्छति । यत्र क्षमायाम् । साधोः मुनेः । यन्मनः विकारे न याति । क सति । अअगकृताघाकोशासाप्रियादी अपि सति जज्जनैः उसका अवलोकन योगी जन ही अपनी योग-दृष्टिसे कर सकते हैं ।। ७९ ।। शुद्ध नयका आश्रय लेनेवाली साधु जनोंकी बुद्धि तत्त्वका निरूपण करके स्थिरताको प्राप्त होती हुई निरन्तर अखण्ड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योतिका ही अवलोकन करती है ॥ ८० ॥ आत्मा नामक निर्मल तेजके निर्णय करने अर्थात् अपने शुद्ध आत्मरूपमें रुचि उत्पन्न होनेका नाम सम्यग्दर्शन है । उसी आत्मस्वरूपके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा जाता है | इसी आत्मस्वरूपमें लीन होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं । ये तीनों एक साथ उत्पन्न होकर बन्धका विनाश करते हैं। बाह्य रत्नत्रय केवल नाथ पदार्थों (जीवाजीवादि ) को ही विषय करता है और उससे शुभ अथवा अशुभ कर्मका बन्ध होता है जो संसारपरिभ्रमणका ही कारण है । इस प्रकार आगमके जानकार साधुजन निरूपण करते हैं ! विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् - चारित्र इन तीनोंमेंसे प्रत्येक व्यवहार और निश्चयके मेदसे दो दो प्रकारका है। इनमें जीवादिक सात तत्वों के यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है । उनके स्वरूपके जाननेका नाम व्यवहार सम्यग्ज्ञान है | अशुभ क्रियाओंका परित्याग करके शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्त होनेको व्यवहार सम्यक् - चारित्र कहा जाता है । देहादिसे भिन्न आत्मामें रुचि होनेका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है । उसी देहादिसे भिन्न आत्मा के स्वरूपके अवबोधको निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । आत्मस्वरूपमें लीन रहनेको निश्चय सम्यक् चारित्र कहते हैं । इनमें व्यवहार रलत्रय शुभ और अशुभ कर्मों के बन्धका कारण होनेसे स्वर्गादि अभ्युदयका निमित्त होता है । किन्तु निश्चय रत्नत्रय शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके ही कर्मो के बन्षको नष्ट करके मोक्षसुखका कारण होता है ॥ ८१ ॥ इस प्रकार रत्नत्रय के स्वरूपका निरूपण हुआ | अज्ञानी जनके द्वारा शारीरिक बाबा, अपशब्दों का प्रयोग, हास्य एवं और भी अप्रिय कार्योंके किये जानेपर जो
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कारी । २ का कोष कोष वा स्कन्
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