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१. धर्मापवेशागतम् 131) कर्माधौ तविचित्रोदयलहरिमरज्याकुले म्यापन
भ्राम्यनकादिकोणे मृतिजननलसवाडयावर्तगत। मुक्तः शक्रया हताः प्रतिगति स पुमान मजनोग्मजनाम्या
मप्राप्य ज्ञानपोतं तदनुगतज पारगामी कर्थ स्यात् ॥ १३१ 132) शश्वमोहमहान्धकारकलिते त्रैलोक्यसामन्यसौ
जैनी वागमलप्रदीपकलिका न स्याचदि चोतिका । भायानामुपलघिरेव न भवेत् सम्यक्तदिष्टेतर
माप्तित्यागकते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्तारशी ॥ १३२ ॥ 133) शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्रकालादिहेतौ ।
लवा स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्रावशेषम् । सपमान । कर्माब्धी कर्मसमुदे । शालपोतम अप्राप्य पारगामी कथं स्यात् भवेत् । फिलक्षणः पुमान् । तदनुगतः तस्य संसारसमुदस्य अनुगतः सहगामी। पुनः अष्टः मूर्खः । पुनः किलक्षणः जीवः । शत्तया मुक्तः रहितः। प्रतिगति गति गति प्रति । मजनं मुडमम् उन्मजनम् उछलनं द्वाभ्याम् । इताः विकलाशः पीडितशरीरः। किंलक्षणे कर्मसमरे। तद्विचित्रोदयलहरिमरव्याकुले रुख कर्मणः विचित्रोदयलहरिभरेण व्याकुले । पुनः किंलक्षणे कर्मसमुद्रे । व्यापतुपत्राम्यनकादिकीर्णे सघन-उपनमनदुराजलचरजीवरते। पुनः किलक्षणे कर्मसमुद। मतिजननलसद्वाडदावर्त गर्ने जन्मजरामृत्युवाढवामिमृते । 1३१॥ यदि चेत् । लोक्यसपनि त्रैलोक्यगृहे। असौ जैनी वाक् अमलप्रदीपकलिका । घोतिका प्रकाशनशीला । म स्यात् न भवेत् । फिलक्षणे लोक्यसपनि । पाश्चन्मोहमहान्धकारकलिते अनवरतमोहान्धकारमारते । संसारे यदि जैनी वाक्वीपिका म स्यात् तदा। तनुमा जीवानाम् । भाधानां सम्यक् उपलब्धिरेव न भवेत् । पुनखत्-इटेतरप्राप्तित्यागकृते उपादेयहेयबस्तुप्रासित्यागते कारणाय । तनुभृतो तादशी मतिः दूरे तिष्ठति १३२ ॥ यत् यस्मात् । अयम् आत्मा धर्मः । आत्मना। खम् आत्मानम् । असुखस्फीतसंसारगात् उपत्य सुखमयपदे। धारयति स्थापयति । कर्मणि शान्ते सति । उषितयोग्यसकलक्षेत्रकालादिपावसामग्रीहती सत्ता (1) वर्तमानायाम् । यह शीघ्र ही कर्मोसे रहित हो जाता है ॥ १३० ॥ जो कर्मरूपी समुद्र अपने विविध प्रकारके उदयरूपी लहरोंके भारसे व्याप्त है, आपत्तियोंरूप इधर उधर घूमनेवाले महान् मगर आदि जलजन्तुओंसे परिपूर्ण है, तथा भृत्यु व जन्मरूपी वड़वामि और भंवरोंके गड्डेके समान है; उसमें पड़ा हुआ वह अज्ञानी मनुष्य - जिसका शरीर प्रत्येक गतिमे ( पग-पगपर ) बार बार हूबने और ऊपर आनेके कारण पीड़ित हो रहा है तथा जो पार करानेरूप शक्तिसे रहित है - ज्ञानरूपी जहाजको प्राप्त किये विना कैसे पारगामी हो सकता है! अर्थात् जब तक उसे ज्ञानरूपी जहाज प्राप्त नहीं होता है तब तक वह कर्मरूपी समुद्रके पार किसी प्रकार भी नहीं पहुंच सकता है ।। १३१ ॥ जो तीनों लोकोंरूप भवन सर्वदा मोहरूप सघन अन्धकारसे व्याप्त हो रहा है उसको प्रकाशित करनेवाली यदि जिनवाणीरूपी निर्मल दीपककी लौ न हो तो पदार्थोंका भले प्रकारसे जब ज्ञान ही नहीं हो सकता है तब ऐसी अवस्थामें इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टके परित्यागके लिये प्राणियोंके उस प्रकारकी बुद्धि कैसे हो सकती है ! नहीं हो सकती है ॥ १३२ ।। कर्मके उपशान्त होनेके साथ योग्य समस्त क्षेत्र कालादिरूप सामग्रीके प्राप्त हो जानेपर केवल ध्यानमुद्रासे संयुक्त स्वास्थ्य (आत्मस्वरूपस्थता) को जिस किसी प्रकारसे प्राप्त करके चूंकि यह आत्मा दुःखोंसे परिपूर्ण संसाररूप गड्डेसे अपनेको निकालकर अपने आप ही सुखमय पद अर्थात् मोक्षमें धारण कराता है अतएव वह आत्मा ही धर्म कहा जाता है ।। विशेषार्थ-- 'इष्टस्थाने धरति इति धर्मः' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवको संसारदुखसे निकालकर अभीष्ट पद
११ मुद्राविशेषम् । २भश उपलग्थिः कर्य स्वाद प्रामिः कयं भवेत्।
वारितिलेतत्पदं नाति।