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११६ पादि-पञ्चविंशतिः
[393882392) नापि हि परेण स्वासंबन्धो पन्धकारणम् । परैकरवपने शाम्ते मुक्तये स्थितिरात्मनः ॥२५॥ 393) विकरपोर्मिमरस्यक्तः शान्तः कैवल्यमाश्रितः । कर्माभावे भषेदारमा पाताभावे समुद्रवत् ॥२६॥ 384) संयोगेन यदायात मत्तस्तत्सकलं परम् । तरपरित्यागयोगेन मुक्तोऽहमिति मे मतिः ॥ २७ ॥ 995) किं में करिष्यता करी शुभाशुभनिशाबरी । रागद्वेषपरित्यागमहामकोण कीलितौ ॥ २८॥ 336) संपन्येऽपि सति स्याज्यौ रागद्वेषौ महात्मभिः। विना सेनापि ये कुर्युस्ते कुर्युः किंनपातुलाः॥ 997) मनोवाकायचेशाभिस्तशिर्ष फर्म वृम्भते । उपास्यते तदेव ताभ्यो मिर्म मुमुक्षुमिः ॥ ३०॥ साकेत् । पर-श्रेष्ठ-एक्लपदे शान्ते बास्मनः स्थितिः । मुच्ये मोक्षाय भवति ॥ २५ ॥ आत्मा शान्तः मवेत् । किलक्षण भास्मा। विकल्प-मिभरत्यकः रहितः । विम्यम् आश्रितः । शान्तः भवेत् । क सति । कर्माभावे सति । किंवत् । वाताभावे पानाभावे । समुद्रवत् ॥ २६॥ यत् संयोगेन आयात रस्तु तत्सकलं पस्तु मत्तः सकाशात् । परं भिषम् । तत्परित्यागयोगेन तस्य बस्तुनः परित्यागयोगेन । मई मुफः इति मे मतिः ॥ १७॥ शुभाशुभनिशाचरी पुण्यपापराक्षसी दौ। मे कि करिष्यतः । किलमणी पुण्यपापराक्षसी। रागद्वेषपरित्यागमहामश्रेण कीरिती ॥ २८ ॥ महास्मभिः भम्पैः । संबन्धेऽपि सति रागदेषी स्याज्यौ। येमाः । तेग सेवन्रेन विना मपि रागद्वेष र्युः । ते मूर्ताः । किन पुर्युः ।। २५ ॥ मनोवाकायचेष्टामिः । सविध पुण्यपापरू
जम्भते प्रसरति । ममाभिः मनीपरैः। तत एव एकम बास्मतत्त्वम् । उपास्यते सेव्यते । कलक्षणम् आत्मतत्वम् । तेम्मः प्लॉचम्मः पाप्पुभ्वेभ्यो भिनम् ॥ ३ ॥ सब इति निश्चितम् । ततः कर्मबन्धात् । द्वैत संसारः भागते । मसात् अर्मात् परमात्मा बन जाता है ।। २४ ।। किसी भी पर पदार्थसे जो सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण होता है, किन्तु शान्त व उत्कृष्ट एकत्वपदमें जो आत्माकी स्थिति होती है वह मुक्तिका कारण होती है ॥२५॥ धर्मके अमावमें मह आस्मा वायुके अमावमें समुद्र के समान विकल्पोरूप लहरोंके भारसे रहित और शान्त होकर कैवस्म अवस्थाको प्राप्त हो जाती है । विशेषार्थ-जिस प्रकार वायुका संचार न होनेपर समुद्र लहरोसे रहित, शान्त और एकत्व अवस्वासे युक्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कोका अभाव हो जानेपर यह आस्मा सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित, शान्त (कोषादि विकारोंसे रहित ) और केवली अवस्ासे युक्त हो जाता है |॥ २६ ॥ संयोगसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह सब मुझसे मिल है। उसका परित्याग कर देनेके सम्बन्धसे मैं मुक्त हो चुका, ऐसा मेरा निश्चय है ।। विशेषार्थ-यह प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र एवं धनसम्पति आदि पर पदार्थोके संयोगसे ही अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता है, अत एव उक्त संयोगका ही परित्याग करना चाहिये । ऐसा करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ २७ ॥ जिन पुण्य और पापरूप दोनों दुष्ट राक्षसों को राग-पके परित्यागरूप महामंत्रके द्वारा कीलित किया जा चुका है वे अब मेरा (आत्माका) क्या कर सकेंगे! अर्थात् वे कुछ भी हानि नहीं कर सकेंगे। विशेषार्थ-जो पुण्य और पापरूप कर्म प्राणीको अनेक प्रकारका कट (पारतंत्र्य आदि) दिया करते हैं उनका बन्ध राग और द्वेषके निमित्तसे ही होता है। अत एव उक राग-द्वेषका परित्याग कर देनेसे उनका बन्ध स्वयमेव रुक जाता है और इस प्रकारसे आत्मा स्वतंत्र हो जाता है ॥२८॥ महात्माओंको सम्बन्ध (निमित्त) के भी होनेपर उन राग-द्वेषका परित्याग करना चाहिये । जो जीव उस ( सम्बन्ध) के विना भी राग-द्वेष करते हैं वे वातरोगसे ग्रसित रोगीके समान अपना कौन-सा अहित नहीं करते है ! अर्थात् वे अपना सर प्रकारसे अहित करते हैं ॥ २९ ॥ मन, वचन और कायकी प्रपिसे उस प्रकारका मर्यात् तदनुसार पुण्य-पापरूप कर्म वृद्धिंगत होता है। अत एव मुमुक्षु जन उक्त मन-वचन-कायकी प्रवृचिसे मिन उसी एक आस्मतस्वकी उपासना किया करते हैं ॥३०॥ द्वैतभावसे नियमतः
कर देभ्यो। कम्पः पुण्यपापेम्नो।