Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 168
________________ पानादि-पक्षविराति [3a4:0-80384) पकवलसतिरिय सुरसिन्धुरुधामीपसमन्दिहिमभूषरता प्रसूता। यो गाइते शिषपदाम्मुनिषि प्रविधमेसां लभेत स नः परमो विशुखिम् ॥७॥ 385) संसारसागरसमुत्तरकसेतुमेनं सतो सयुपदेशमुपाभितानाम् । कुर्यात्पदं मलकबो ऽपि किमतर सम्यक्समाधिषिधिसमिधिनिस्तर ८॥ 986) आत्मा मिनस्तदनुगतिमत्कर्म मि तयोर्या प्रत्यासर्भवति विकति सापि मित्रा तव। कालवप्रमुखमपि यच्च मिश्र मतं मे मित्रं भिन्न निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥७९॥ 387) ये ऽभ्यासयन्ति कथयन्ति विचारयन्ति संभावयन्ति च मुर्मुदुरात्मतत्वम् । से मोक्षमापनममतलीय सि प्रान्ति मषकेवललम्धिरूपम् ॥८॥ सह । पर केवलम् । एकताम् । गतोऽसि प्रासोऽस्मि ॥ ६ ॥ इयम् एकरवसातिः । सुरसिन्धुः आकाशगङ्गा । उः श्रीपचनन्दिहिमभूधरतः उच्चतरभीपमनन्दिहिमाचलपर्वतात् । प्रसूता उता उत्पना । यः पुमान् । एताम् आवश्यताम् । गाहने मान्दोलयति । स नरः परमा विशुधिम् । मभेत प्राप्नुयात् । किलक्षणाम् एकस्वसप्ततिम् आकाशगाम् । शिवपदाम्बुनिर्षि विद्या मोक्षसमुत्र प्राप्ताम् ॥ ७॥ भो भव्याः भूवताम् । एनम् । सत् समीचीनम् उपदेशम् उपाश्रितानाम् । सतो सत्पुरुषाणाम् । अन्तरले मनसि अभ्यन्तरे मनास । मललयोऽपि पापलेशोऽपि। किं पद स्पानं कुर्यात् । अपि तुमकुर्माद । मिलक्षणम् उपदेनम् । संसारसागरसमुत्तरणकसेतुम् एकोहणम् । किलक्षणे अन्तरगे। सम्यक्समाधिविधिसनिधिनिखरो समीचीनसाम्पविधिसमीपेन अनाकले ॥ ७० ॥ भास्मा भिलः । तदनुगतिमत् तस्य जीवस्य भनुगामि कर्म भित्रम् । तयोः दयोः पात्मकर्मणोः । प्रत्यासत्तेः सामीप्यात् । या विकृतिः भवति सापि मिमा । तथैव सा विकृतिः भात्मकर्मवद्विषा । यत् कालक्षेत्रप्रमुर्म तदपि मिकम् । च पुनः । एतत्सर्वम् । निजगुणालकतम् मात्मीयगुणपर्यायसंयुजम् । मत मिषं मिलम् । मत कथितम् ॥ ५॥ ये मुनयः । आत्मतत्त्वम् । मुहुर्मुहुः वारंवारम् । मभ्यासयन्ति। च पुनः । ये मुनयः भारमतवं श्यन्ति । ये मुनयः भास्मतर्प विचारयन्ति । ये मुमयः मात्मतल संभावयन्ति ।" मुनयः क्षिप्रै शीघ्रम् । अनून मोक्ष प्रयान्ति।ने स्तं बनूनं सौख्येन पूर्ण मोक्षम् । किंलक्षणं मोक्षम् । अक्षय पिनाशरहितम् । भनन्ससौख्यम् । पुनः किलक्षणं मोक्षम् । नवकेवललम्भिस्म नबकेवल. खरूपम् ॥ ८॥ इत्येकत्वासीतिः [इत्येकास्वसप्ततिः] समाप्ता ॥ ४ ॥ वही एक चैतन्य उत्कृष्ट है । मैं स्वभावतः केवल उसीके साथ एकताको प्राप्त हुआ हूं ॥ ७६ ॥ जो यह एकत्वसप्तति (सत्तर पद्यमय एकत्वविषयक प्रकरण) रूपी गंगा उन्नत ( ऊंचे) श्री पदमन्दीरूपी हिमालय पर्वतसे उत्पन्न होकर मोक्षपदरूपी समुद्रमें प्रविष्ट हुई है उसमें जो मनुष्य यान करता है (एकत्वसप्ततिके पक्षमै- अभ्यास करता है) वह मनुष्य अतिशय विशुद्धिको प्राप्त होता है ।। ७७ ॥ जिन साधुजनोंने संसाररूपी समुद्रके पार होनेमें अद्वितीय पुलस्वरूप इस उपदेशका आश्रय लिया है उनके उत्तम समाधिविधिकी समीपतासे निश्चलताको प्राप्त हुए अन्तःकरणमें क्या भलका लेश भी स्थान पा सकता है ! अर्थात् नहीं पा सकता || ७८ ॥ मात्मा भिन्न है, उसका अनुसरण करनेवाला कर्म मुझसे भिन्न है, इन दोनोंके सम्बन्धसे जो विकारभाव उत्पन्न होता है वह भी उसी प्रकारसे भिन्न है, तथा अन्य भी जो काल एवं क्षेत्र आदि है वे भी भिन्न माने गये हैं। अभिप्राय यह कि अपने गुणों और कलाओंसे विक्षित यह सब भिन्न भिन्न ही है ॥ ७९ ॥ जो भव्य जीव इस आत्मतत्त्वका बार बार अभ्यास करते हैं, व्याख्यान करते हैं, विचार करते हैं, तथा सम्मान करते हैं; वे शीघ्र ही अविनश्वर, सम्पूर्ण, अनन्त सुखसे संयुक्त एवं नौ केवललब्धियों (केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र) स्वरूप मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥ ८० ॥ इस प्रकार यह एकत्यससति प्रकरण समाप्त हुआ ॥ ४ ॥ श'श्रीपचनन्दिहिमभूषरतः' नास्ति। २. समुत्तरणपकोण, क समुत्तरणएकसेतुं प्रोवर्ण। । । ५. श्रीधे नूनं मोक्षं प्रयान्ति न, कह अनून न।

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