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पन्नमन्दि-पशितिः
[320 :-- 320) सम्यग्हायोषचारित्रत्रितयं मुक्तिकारणम् । मुस्तावेव सुख सेन तत्र यसो विधीयताम् ॥ १३ ॥ 321 ) पर्शनं निक्षयः पुंसि पोधस्सबोध दम्यते। स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगा शिवाभयः ॥ १४ ॥ 322 ) एकमेव हि चैतन्य शुद्ध निश्चयतोऽथया । कोऽयकाशो विकल्पाना तराखण्डेकवस्तुनि ॥१५॥ 323) प्रमाणनयनिक्षेप अर्षाचीने पदे स्थिता । फेवलेच पुनस्तसिस्तदेकं प्रतिभासते॥ १५॥ 324) निश्चयकरशा नित्यं तदेवैकं चिदात्मकम् । प्रपश्यामि गतभ्रान्तिव्यवहारहशा परम् ॥ १७ ॥ मुक्तिकारणं मोक्षकारणम् । वेन कारणेन । मुची मोझे एवं पुखम् । तत्र मुक्ती मोझे । यमः विधीयता क्रियताम् ॥ १३ ॥ पुसि आत्मनि निश्चयः दर्शनम् । तस्सिन यात्मनि पोषः तदोषः । इष्यते कथ्यते । अत्रैव भात्मनि स्थितिः चारित्रम् । इति त्रयम् । शिवायः योगः त्रये मोशकारणम् ॥ १४॥ अषा। हि यतः । असनियमतः एक चैतन्य तत्वम् एक मस्ति । तत्र असायक
| विषये। विकल्पानाम भबकायाः अपितु अवकाशः नास्ति ॥१५॥ पुनः । प्रमाणनयनिक्षेपाः । अर्वाचीनपने व्यवहारपये। स्थिताः । तस्मिन् केबने । तत् एक चैतन्यम् । प्रतिभासते शोभते ॥11॥ निश्चयकरशा । निर्व सदैव । एकम् । [तत् चिदात्मक ] चैतन्यतत्वम् । प्रतिभासते। चैतम्यतत्वं गसम्रान्तिः प्रपश्यामि । व्यवहारमशा व्यवहार नेत्रेण । अपर दर्शनशानचारित्रखमं प्रतिभासवे ॥ १७॥ यः भास्मनि विषये आत्ममा कृत्वा आस्मना शाला स्थिरः तिचेत् स प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं। जिन परिणामोंमें उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधस्तनसमयवर्ती परिणामों के सदृश होते हैं उन्हें अधःप्रवृत्तकरण कहा जाता है (विशेष जाननेके लिये देखिये पदवण्डागम पु. ६, पृ. २१४ आदि) । प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर जो अपूर्व अपूर्व ही परिणाम होते हैं वे अपूर्वकरण परिणाम कहलाते हैं। इनमें भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम सर्वथा विसदृश तथा एक समयवर्ती जीवोंके परिणाम साल और विसी होते है जो परिणाम एक समयवर्ती जोवोंके सर्वथा सदश तथा भिन्न समयवर्ती जीवोंके सर्वथा विसदृश ही होते हैं उन्हें अनिवृत्तिकरण परिणाम कहा जाता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति इन तीन प्रकारके परिणामोंके अन्तिम समयमें होती है। उपर्युक्त पांच लब्धियोंमें पूर्वकी चार लब्धियां भत्र्य और अभव्य दोनोंके भी समान रूपसे होती हैं। किन्तु पांचवी करणलब्धि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए भव्य जीबके ही होती है ॥ १२ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों एकत्रित स्वरूपसे मोक्षके कारण हैं। और वास्तविक सुख उस मोक्षमें ही है । इसलिये उस मोक्षके विषय प्रयत्न करना चाहिये ॥ १३ ॥ आत्माके विषयमें जो निश्चय हो जाता है उसे सम्यग्दर्शन, उस आत्माका जो ज्ञान होता है उसे सम्यग्ज्ञान, तथा उसी आत्मामें स्थिर होनेको सम्यरुचारित्र कहा जाता है। इन तीनोंका संयोग मोक्षका कारण होता है ।। १४ ॥ अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे ये (सम्यग्दर्शनादि) तीनों एक चैतन्यस्वरूप ही हैं। कारण कि उस अखण्ड एक वस्तु (आत्मा) में भेदोंके लिये स्थान ही कौन-सा है ! ।। विशेषार्थ- ऊपर जो सम्यग्दर्शन आदिका पृथक् पृथक् स्वरूप बतलाया गया है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। शुद्ध निश्चयनयसे उन तीनों में कोई भेद नहीं है, क्योंकि वे तीनों अखण्ड आत्मासे अमिका हैं । इसीलिये उनमें भेदकी कल्पना भी नहीं हो सकती है ।। १५॥ प्रमाण, नय और निक्षेप ये अर्वाचीन पदमें स्थित है, अर्थात् जब व्यवहारनयकी मुख्यतासे वस्तुका विवेचन किया जाता है तभी इनका उपयोग होता है। किन्तु शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिमें केवल एक शुद्ध आत्मा ही प्रतिभासित होता है। वहां के उपर्युक्त सम्यग्दर्शनादि तीनों भी अमेदरूपमें एक ही प्रतिभासित होते हैं ॥ १६ ॥ मैं निश्चयनयरूप अनुपम नेत्रसे सदा प्रान्तिसे रहित होकर उसी एक चैतन्य स्वरूपको देखता हूं। किन्तु व्यवहारनयरूप नेत्रसे
१ सव' पति नास्ति। रमा तम्पताल ।