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पानम्बि-याविशतिः
[315:04315) फेचित् किंचित्परिहाय कुतनिर्षिताशयाः । अगम्मद प्रपश्यम्तो नाश्रयन्ति मनीषिणः IION 316) जन्तुमुखरते धर्मः पतन्तं दुःखसंकटे । अन्यथा स तो भान्स्था लोकैर्मानापरीक्षितः ॥९॥
317) सर्व विधीतरागोजो धर्मः सूनूतता प्रजेत् । प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाबः प्रामाण्यमिप्यते ॥ बुदयः ॥ ७॥ केबिज्जीवाः । कुश्चित् शानात् । किचित्तत्वम् । परिशाय शास्वा । बगन्मन्दं मूलम् । प्रपत्यन्तः । मनीषिणः पण्डिताः । परमात्मतत्वमाश्रयन्ति न प्रामुवन्ति । किंलक्षणाः पण्डिताः। गर्विताशयाः गर्वितरिताः॥८॥ धर्मः दुःखसंकटे पतन्तम् । जन्तु मीनम् । उसरते । स दयाधर्मः आरमधर्मः । लोकै प्रान्त्या अन्यथा कृता । साधुषनः परीक्षितः परीक्षा फूल्ला । प्रायः प्रहणीयः ॥ ९ ॥ सर्पमित सर्वशः वीतरागः तेन उक्तः धर्मः समृता प्रोत् सत्यता प्रजेत् । यतः कारणात् । के द्वारा प्ररूपित खोटे शानोंके अभ्याससे पदार्थको सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके अनेक धर्मात्मक (अनेकान्तात्मक) स्वरूपको नहीं जानते हैं और इसीलिये वे विनाशको प्राप्त होते हैं । विशेषार्थ-जिस प्रकार किसी एक ही पुरुषमें पितृत्व, पुत्रस्व, भागिनेयत्व और मातुलत्य आदि अनेक धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षासे रहते हैं तभा अपेक्षाकृत होनेसे उनमें परस्पर किसी प्रकारका विरोध भी नहीं आता है। इसी प्रकारसे प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्म रहते हैं। किन्तु कितने ही एकान्तवादी उनकी अपेक्षाकृत सत्यताको न समझकर उनमें परस्पर विरोध बतलाते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार किसी एक ही पदार्थमें एक साथ शीतता
और उष्णता ये दोनों धर्म नहीं रह सकते हैं उसी प्रकारसे एक ही पदार्थमें नित्यत्व-अनित्यत्व, पृथक्त्वापृथक्त्व तथा एकत्वानेकस्य आदि परस्पर विरोधी धर्म भी एक साथ नहीं रह सकते हैं । परन्तु यदि इसपर गम्भीर इष्टिसे विचार किया जाय तो उस बक रहना किसी प्रकारका विरोष प्रतिभासित नहीं होता है। जैसेकिसी एक ही पुरुषमें अपने पुत्रकी अपेक्षा पितृत्व और पिताकी अपेक्षा पुत्रत्व इन दोनों विरोधी धर्मों के रहनेमें । एक ही वस्तुमें शीतता और उष्णताके रहने में जो विरोध बतलाया जाता है इसमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है, क्योंकि, चीमटा आदिमें एक साथ वे दोनों (अग्रभागकी अपेक्षा उष्णत्व और पिछले भागकी अपेक्षा शीतता) धर्म प्रत्यक्षसे देखे जाते हैं। इसी प्रकार घट-पटादि सभी पदामि द्रव्यकी अपेक्षा नित्यत्व
और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी दिखनेवाले धर्म भी पाये जाते हैं। कारण कि जब घटका विनाश होता है तब वह कुछ निरन्वय विनाश नहीं होता । किन्तु जो पुल द्रव्य घट पर्यायमें था उसका पौलिकत्व उसके नष्ट हो जानेपर उत्पन्न हुए ठीकरों में भी बना रहता है । अत एव पर्यायकी अपेक्षा ही उसका नाश कहा जावेगा, न कि पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा भी । इसी प्रकार अन्य धर्मोके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । इस प्रकार जो जड़बुद्धि पदार्थमें अनेक धर्मों के प्रतीतिसिद्ध होनेपर भी उनमेंसे किसी एक ही धर्मको दुराप्रहके वश होकर स्वीकार करते हैं वे स्वयं ही अपने आपका अहित करते हैं ।। ७ ॥ कितने ही जीव किसी शास्त्र आदिके निमित्तसे कुछ थोड़ा-सा ज्ञान पा करके इतने अधिक अभिमानको प्राप्त हो जाते हैं कि वे सभी लोगोंको मूर्ख समझकर अन्य किन्हीं भी विशिष्ट विद्वानोंका आश्य नहीं लेते IMC दुखरूप संकुचित मार्गमें (गड्डेमें ) गिरते हुए प्राणीकी रक्षा धर्म ही करता है । परन्तु दूसरों के द्वारा इसका स्वरूप प्रान्तिके वश होकर विपरीत कर दिया गया है । अत एव मनुष्योंको उसे (धर्मको) परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।। ९ ॥ जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है ॥ विशेषार्थ-वचनमें असत्यता या तो अल्पज्ञताके कारणसे होती है या फिर हृदयके रागद्वेषसे दूषित होनेके कारण । इसीलिये जो पुरुष
१ सर्ववित् सर्ववेत्ता सशाता मीतरगः ।