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पद्ममन्विपचविंशतिः
[299: ३-४७
299) वातूल पष किमु किं ग्रहसंगृहीतो भ्रान्तो ऽथ वा किसु जनः किमथ प्रमत्तः । जानाति पश्यति शृणोति च जीवितादि विद्युच्चलं तदपि मो कुरुते स्वकार्यम् ॥ ४७ ॥ 300 ) व मौषधमस्य नैव कथितः कस्याप्ययं मन्त्रिणो नो कुर्याच्छुचमेवमुतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे ।
यज्ञा यान्ति यतो ऽङ्गिः शिथिलता सर्वे मृतेः संनिधौ बन्धाधर्मविनिर्मिताः परिलस वर्षाम्बुसिका इव ॥ ४८ ॥ 301) स्वकर्मव्याघ्रेण स्फुरितनिजकालादिमहसा समाघ्रातः साक्षाच्चरणरहिते संस्तुतिबने । प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे में गृहमिदं घवयं मे मे पशुरिव जनो याति मरणम् ॥ ४९ ॥
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कः श्रस्यति कः भयं करोति । न कोऽपि ॥ ४६ ॥ एषः जनः किमु चातुलः । किं वा प्रहेण संगृहीतः । अथवा किमु भ्रान्तः। अप किं प्रमत्तः । च पुनः । एषः जनः जीवितादि शिशुवलं जानाति पश्यति शृणोति । तदपि खकार्य नो कुरुते ॥ ४७ ॥ उमतमत्तिः ज्ञानवान् । निजे इष्टे । लोकान्तरस्थे सति भृते सति । एवं शुचं शोकं नो कुर्यात् । एवं कथम् । अस्य रोगिणः पुरुषस्य ओषधं नो दत्तम् । अयं कस्यापि मन्त्रिणः नैव कथितः । एवं शुभं शोकं नो कुर्यात् । यतः अग्निः जीवस्य । सृतेः यमस्य । संनिधौ समीपे । सर्वे यत्नाः शिथिलतां यान्ति । यथा चर्मविनिर्मिताः बन्धाः परिलसद्वर्षाम्बुसिता इव जलेन सिकाः चर्मबन्धाः शिथिलता यान्ति ॥ ४८ ॥ जनः लोकः । संस्कृतिवने संसारवने । स्वकर्मव्याघ्रेण साक्षात् समाभासः गृहीतः। भरणे याति । किंलक्षणे संसारे । शरणरहिते । किंलक्षणेन स्वकर्मव्याघ्रेण । स्फुरितनिजकालादिमइसा । एवं वदन् मरणं याति । एवं
उसकी अज्ञानता ही कही जाती है। ठीक इसी प्रकारसे जब कि संसारका स्वरूप ही आपत्तिमय है तब मला ऐसे संसार में रहकर किसी आपत्तिके आनेपर खेदखिन्न होना, यह भी अतिशय अज्ञानताका द्योतक है ॥ ४६ ॥ यह मनुष्य क्या वातरोगी है, क्या भूत-पिशाच आदिसे ग्रहण किया गया है, क्या भ्रान्तिको प्राप्त हुआ है, अथवा क्या पागल है ? कारण कि वह ' जीवित आदि बिजलीके समान चंचल है' इस बातको जानता है, देखता है और सुनता भी है; तो भी अपने कार्य ( आत्महित) को नहीं करता है || ४७॥ किसी प्रियजन मरणको प्राप्त होनेपर विवेकी मनुष्य 'इसको औषध नहीं दी गई, अथवा इसके विषयमें किसी मात्रिक के लिये नहीं कहा गया' इस प्रकारसे शोकको नहीं करता है। कारण कि मृत्युके निकट आनेपर प्राणियों के सभी प्रयत्न इस प्रकार शिथिलताको प्राप्त होते हैं जिस प्रकार कि चमड़ेसे बनाये गये बन्धन वर्षा के मल्में भीगकर शिथिल हो जाते हैं । अर्थात् मृत्युसे बचने के लिये किया जानेवाला प्रयत्न कभी किसीका सफल नहीं होता है ||४८|| जो संसाररूपी वन रक्षकोंसे रहित है उसमें अपने उदयकाल आदिरूप पराक्रमसे संयुक्त ऐसे कर्मरूपी व्याघ्रके द्वारा ग्रहण किया गया यह मनुष्यरूपी पशु 'यह प्रिया मेरी है, ये पुत्र मेरे हैं, यह द्रव्य मेरा है, और यह घर भी मेरा है' इस प्रकार 'मेरा मेरा' कहता हुआ मरणको प्राप्त हो जाता है । विशेषार्थ - जिस प्रकार वनमें गन्धको पाकर बीतेके द्वारा पकड़े गये बकरे आदि पशुकी रक्षा करनेवाला वहां कोई नहीं है - वह 'मैं मैं' शब्दको करता हुआ वहीं पर मरणको प्राप्त होता है उसी प्रकार इस संसार में कर्मके आधीन हुए प्राणीकी भी मृत्युसे रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। फिर भी मोहके वशीभूत होकर यह मनुष्य उस मृत्युकी ओर ध्यान न देकर जो खी-पुत्रादि वाद्य पदार्थ कभी अपने नहीं हो सकते उनमें ममत्वबुद्धि रखकर 'मे में' ( यह स्त्री मेरी है, ये पुत्र मेरे हैं आदि ) करता हुआ व्यर्थ में संक्केशको प्राप्त होता