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पनि परिराति धर्मः प्रापयतीह तत्पदमपि न्यायन्ति योगिनो
मोधर्मास्मादस्ति नैव सुखी नो पण्डितो पार्मिकात् ॥ १८२० 183) मानायोनिजलौघलहितविशिकेशोर्मिजालाकुले
मोतानुसभूरिकर्ममकरमालीकृतमाणिनि । दुपर्यन्तगभीरमीषणतरे जम्माम्बुधी मजा
मो धावपरोऽस्ति तारक इहानान्तं यतध्वं बुषार १८॥ 184) अन्मोकुल एच संपदधिके लावण्यधारानिधि
नीरोग धपुरादिरायुरखिलं धर्मावं जायते। साम श्रीरथवा अगस्सुम सुख त म शुमा गुणाः
वैरुत्कण्डितमानमैरिव नरोमानीयते धार्मिकः॥१८४॥ रक्षितः । पुर्व रहिना जीवाना रयति । धर्मः हतो औबामा हन्ति । ततः कारणात् । धर्मः हस्तभ्यः न । स एव धर्मः संसारिणा मीवानाम् । सनया शरणम् । इह जगति संसारे। अमः तत्पदं प्रापयति अपि । यस्पदम् । योगिनो प्यायन्ति । मोक्षपदं प्रापयति । धर्मात्महत मित्रम् अपरः । र पुनः । धार्मिकात् पुरुषात् अपरः मुखी न । सचमी (1) पुरुषात् अपर: पतिः न। सर्वया धर्मः शरणं जीवानाम् ॥ १८२ ॥ जन्माम्बुधौ संसारसमुदे। मबतो बुडताम् । प्राणिना जीशनाम् । भर्मात अपरः तारकः अस्ति । लियो सारसमो: नासोनेरीनामित दिक्षि। एक मिजाला । पुनः किंलक्षणे संसारसमुद्रे । प्रोद्त-उत्पन्न मतभार बहुल-कर्ममकर-मत्स्यैः प्रासीहताः प्राणिनः यत्र से तस्मिन् । पुनः मिलक्षणे संसारसमुद्र । दुःपर्यन्सगभीरभीषणतरे । मो बुधाः भोर भव्याः । इह धर्मे अश्रान्त निरन्तरम् । यदर्थ को कामम् ॥ १८ ॥ भो भल्याः भूपताम् । धर्मात् बुवम् उचैः कुळे जन्म । एव निवयेन । संजायते । बिसहने कले। सम्पदमिक समीयु । धर्मात् । लापण्यवारानिधिः लावण्यसमुद्रनिधिः (1)। वपुः शरीरम् । नीरोगं बायते । धर्मात् मधिलं पूर्णम् । बायुः संजायते । भश्वा जगस्त मा श्रीः न जगत्सु ससुसं न जगम ते शुधा गुणाः म। । मुगुणेः पार्मिक पुमान नरः । म बाधीयते। मिलक्षणैः गुणैः । धार्मिक पुरुष प्रति उत्पठितमानसरिव ॥ १४ ॥ उस धर्मका पात किया जाता है तो वह भी निश्चयसे प्राणियोंका घात करता है अर्थात् उनें नरकादिक योनियों में पहुंचाता है । इसलिये धर्मका घात नहीं करना चाहिये, क्योंकि, संसारी प्राणियोंकी सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला वही है। धर्म यहां उस ( मोक्ष) पदको भी प्राप्त कराता है जिसका कि ध्यान योगी जन किया करते हैं। धर्मको छोड़कर दूसरा कोई मित्र (हितेषी ) नहीं है तथा धार्मिक पुरुषकी अपेक्षा दूसरा कोई न तो सुखी हो सकता है और न पण्डित मी ॥ १८२ ॥ जिसने अनेक योनिरूप जलके समूहसे दिशाओंका अतिक्रमण कर दिया है, जो क्लेशरूपी लहरोंके समूहसे व्याप्त हो रहा है, जहापर प्राणी प्रगट हुए आश्चर्यजनक बहुत-से कर्मरूपी मगरोंके ग्रास बनते हैं, जिसका पार बहुत फठिनतासे प्राप्त किया जा सकता है, तथा जो गम्भीर एवं अतिशय भयानक है; ऐसे जन्मरूपी समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करनेवाला धर्मको छोड़कर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिये हे विद्वजन ! आप निरन्तर धर्मके विषय में प्रयन करें ॥१८३॥ निश्चयतः धर्मके प्रभावले अधिक सम्पत्तिशाली उप कुलमें ही जन्म होता है, सौन्दर्यरूपी समुद्र प्राप्त होता है, नीरोग शरीर आदि प्राप्त होते हैं तथा आयु परिपूर्ण होती है अर्थात् मकालमरण नहीं होता । अथवा संसारमें ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है, ऐसा कोई सुख नहीं है, और ऐसे कोई निर्मल गुण नहीं है, जो कि उत्कण्ठितमन होकर पार्मिक पुरुषका आश्रय न लेते हों । अभिप्राय यह कि उपर्युक समस्त ससकी सामरी चूंकि एक मात्र धर्मसे ही प्राप्त होती है अत एवं विवेकी जनको सदा ही उस धर्मका आचरण
समालेकपातीता
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