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[२. वानोपदेशनम् ] 199 ) जीयाजिनो जगति नामिनरेन्बुस्खःमेयो उपम कुल्गोत्रगृहप्रदीपः ।
पाम्बा बभूवधि नवदामतीय सारको परमधर्मरयस्य च ॥१॥ 200) योमिषस्य नपतेः शरवमशुबमाम्पयशोस्तजगत्रितपस्य तस्य ।
किंववामि मनु समनि पस्स मुकं त्रैलोक्सवन्दितपदेन लिनेश्वरेण ॥२॥ 201) श्रेयार यो अवति यस्य रहेकदा बादेकानवम्धमुनिपुंगवारणायाम् ।
साखटिरमारनगवेकचिचहेतुवा बसमतीत्वमिता परिती ॥३॥ निः सर्वसम्मति जीवात् । नियमः बिगः । मामिरेलसमः नाभिराजपुत्रः । पुनः। श्रेयोमपः जीपात: मिमक्षगः शेतपः । कुरुगोत्रछे प्राधिपः कुलपयेवमहामासने पः। गाभ्यां द्वाभ्यां भीनाभिसूनुषेशेनपाभ्याम् । स मरताझे। मतदानती बाम गवानी है। सरकये। पुनः बिसवणे तदानी । परमधर्म-धारमीनम-मानवमरणस्य च ॥ मबु इति बित। तस्य योमिषस नाना नपचे मावर्णयामि । किमसग आयोमियम । परत्वातीन-अन-मेक-सरणाशुभ-उसनमाम्मवात-परिवेकवितवस्य । रस्व सम्पनि अवसः गो। विनेबारेण शषभदेन । मुख मोजन स्तम् । पक्षानेन देन विकोपबन्दिकपदेन इनपरलेनएकातिरन्दितवरमेन ॥ २ ॥भेयाम् पपः पयति । रस श्रेयसः रहे। ता।
जिनके द्वारा उत्तम रीतिसे चलनेवाले मेष्ठ धर्मस्पी रखके चाकके समान व्रत और वान रूप दो तीर्थ यहाँ मावित हुए हैं वे नामिराजके पुत्र आदि जिनेन्द्र तथा कुरुवंशरूप गृहके दीपकके समान राजा श्रेयान् भी जयवन्त होवें। विशेषार्थ-इस भरत क्षेत्रमें प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय कालोंमें भोगममिकी अवस्था रही है। उस समय आर्य कहे जानेवाले पुरुषों और सियोंमें न तो विवाहादि संस्कार ही थे और न प्रतादिक मी। वे दस प्रकारके कस्पवृक्षोंसे प्राप्त हुई सामग्रीके द्वारा यथेच्छ मोग भोगते हुए कालयापन करते थे। कालकमसे जब तृतीय कालमें पल्पका आठवा भाग (1) शेष रहा तब उन कल्पवृक्षोंकी दानशक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी थी। इससे बो समय समयपर उन आर्योको कष्टका अनुभव हुआ उसे यथाक्रमसे उत्पन होनेवाले प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरोंने बूर किया था। उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे। प्रपम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ इन्हींके पुत्र थे। अमी तक जो व्रतोंका प्रचार नहीं था उसे भगवान् आदिनाथने स्वयं ही पांच महावतोंको ग्रहण करके प्रचलित किया । इसी प्रकार अभी तक किसीको दानविधिका मी परिज्ञान नहीं था। इसी कारण छह मासके उपवासको परिपूर्ण करके भगवान् आदि जिनेन्द्रको पारणाके निमित्त और मी छह मास पर्यत घूमना पड़ा । अन्तमें राजा श्रेयानको आतिस्मरणके द्वारा आहारदानकी विधिका परिज्ञान हुआ । तदनुसार तब उसने भक्तिपूर्वक भगवान् आदिनाथको इक्षुरसका आहार दिया । बस यहांसे आहारादि दानोंकी विधिका भी प्रचार प्रारम्भ हो गया । इस प्रकार भगवान् आदिनाथने व्रतोंका प्रचार करके तथा राजा श्रेयान्ने दानविधिका प्रचार करके जगत्का कल्याण किया है । इसीलिये अन्धकार श्री मुनि एप्रनन्दीने यहां व्रततीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे भगवान् आदि जिनेन्द्रका तथा दावतीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे राजा भेयान्का भी स्मरण किया है।॥ १ ॥ जिस रेषान् राजाके गृहपर तीनों लोकोंसे वन्दित चरमोवाले भगवान् ऋषम जिनेन्द्रने आहार ग्रहण किया और इसलिये जिसका शरत्कालीन मेघोंके समान धवल यञ्च तीनों लोकों में फैला, उस भेयान् राजाफा कितना वर्णन किया जाय ! ॥२॥ जिस श्रेयान् राजाके घरपर
नाम्यवन-पूरित।