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पान्वि-पश्चिति
[28813-11 मातः संदविकालने जनक कामोप्रदान
माय मला बस दुबैरम्पतिकमायोज्यते ॥ ३५॥ 288) वाम्मरलेष सुमन विपिना र पर प्राप्यते
जून मृत्युमुणस्यन्ति मनुजासावायवो विम्यति । इत्यं पायवप्रसपलया मोहान्मुषेष एवं
बुसोमित्रपुरे पति कृषिमा संसारमोय ३६ ॥ 289) स्वमुमण्मासि दरम्यान्मृत्युकपर्तहस्तमस्तपनजरोकमोलसबालमन्ये ।
निकटमपि न पश्यत्वापदां वसुनं भवसरसि बराको लोकमीनौष एपः ॥ ३७ ॥ 290) पयासमोर मतक्या पक्ष्याचा गातो
मोहादेव मनावपि मजुते सर्व पर शात्मनः । परमः रवि
बाविताईरमिषः बनतात । कारोवापानमा ने भक्त तदा। बन इतिः कीदते भासते। न किमपि च सारे। मनुम्पाः मुख बाल्छन्ति । तस्सुसम् । परमलम् । विपिना संगाल प्रायते । तत्र संसारे । नून निषितम् । मृत्युम् सपाधयन्ति प्रामुवन्ति । मतः मृत्योः सका. सातारःनिम्बाति महिलालम् यमुना प्रकारे । सममयप्रस-पासकड्दयाः मोकाः । कृषियः मिन्यइस्यः । मोहान् । मुलगा मुसारकोरी भयो पन्ति । किनको संघारम्भरे। सोर्मिप्रचुरे दुःशलहरीमुटे ॥३६॥ एषः बरामेमानौर मेर मास संसारसरोवरे । सूत्-चम-चैवत-धीवरसेन प्रसारित-प्रसारितसरा-तमोगासवाव्यासपातारकर । उनम् मापदाम् । समाम् । निकटम् अधि न पश्यति ॥३॥ जनः लोपः। क्तको खोरम्बासीबार । ग्रान् जनः वान गच्यतः पनन् । तथापि मोहात् एव भात्मनः परम् । स्पैर्य रिलम् । मनु । के यात्री प्राक- मानेन । पर्मान। न हरति न बासति । तत् खम् बात्मानम् । पुस्पैदिसपी मनोहर पसे स्मनीम तमा विश्यमोगबनित मुख जैसे फलोंसे परिपूर्ण होता है; वह यदि मृयुरूपी तीन वापानसे बास न होता तो विद्वान् बन और अन्य क्या देखें? अर्थात् वह मनुष्यरूप वृक्ष म कलाए दावानरसे ना होता ही है। यह देखते हुए भी विद्वजन आत्महितमें प्रवृत्त नहीं होते, यह सेदकी अत है ।। ३५ ॥ संसारमें मनुष्य सुखकी इच्छा करते ही हैं, परन्तु वह उन्हें केवल कर्मके द्वारा दिया गया प्राप्त होब है। वे मनुष्य निमबसे मृत्युको तो प्राप्त होते हैं, परन्तु उससे डरते हैं । इस प्रकार वे दुईदि मनुप बदर इच्छा (सुखामिलपा) और मय ( मृत्युमय ) को धारण करते हुए अज्ञानतासे अनेक दुःसोरूप म्हरोंवाले संसाररूपी मयानक समुद्र में व्यर्थ ही गिरते हैं ॥ ३६ ॥ यह विचारा समापी मतियों समुदाय संसाररूपी सरोवरके भीतर अपने सुखरूप जलमें क्रीडा करता हुआ मृत्युरूपी पीसके हासे लिये गये धने वृद्धत्वरूपी विस्तृत जालके मध्येमें फंसकर निकटवर्ती भी तीव्र यापत्तियों के समूहको नहीं देखता है। विशेषार्य-जिस प्रकार मछलियां सरोवरके भीतर जलमें कीड़ा करती हुई उसमें इतनी आसक हो जाती है कि उन्हें धीवर के द्वारा अपने पकड़नेके लिये फैलाये गये यला मी धान नहीं रहना इसीलिये उन्हें उसमें फंसकर मरम्पका कष्ट सहना पड़ता है । ठीक इसी प्रकार निवारा यह पानीसमूह भी संसारले मीतर सातावेदनीयजनित अल्प सुखमें इतना अधिक मग्न हो जाता है उसे मृत्युको प्राप्त करनेवाले वृद्धत्व (बुढ़ापा) के प्राप्त हो जाने पर उसका भान नहीं होता और इसनि मतमे वह काका ग्रास बनकर उसप दुःखको सहता है | ३७ !! मनुष्य मरणको प्राप्त हुए बीजोंकि सम्बन्ध सुनता है, त्या वर्तमानमें उक्त मरणको प्राप्त होनेवाले बहुत से जीवोंको स्वयं देखता भी
मादमा । २४मा गाए ।