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३.भनित्यपश्चाशत् 260) भवम्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पचाणि पुष्पाणि फलानि यत्।
कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ॥ ८॥ 261) दुर्लभयानवितव्यताव्यतिकरारष्टे प्रिये मानुषे
यच्छोका क्रियते तदा तमसि प्रारभ्यते नर्तनम् । सर्व नश्वरमेय वस्तु भुवने मत्वा महल्या दिया
निर्धूताखिल खसंततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम् ॥९॥ 202) पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसामं यदा
सजायेत तदैव तस्य भविमो शात्वा तदेतदक्षुषम् । शोक मुश्च मृते प्रिये ऽपि सुखद धर्म कुरुष्वादरात् सर्प दरमुपागते किमिति भोस्तवृष्टिराइन्यते ॥ १० ॥
पाताय पतनार्थम् । उति उदयं करोति । तथा सर्वदेहिनाम् एतत् शरीर पाताय पतनार्थम् । उदेति उदयं करोति । अतः कारणात् 1 स्वकालम् । भासाद्य प्राप्य । निजे स्वकीये मित्रादौ गोत्रजने वा 1 सेस्थिते मृते सति । कः प्रबुद्धधीः शोक करोति। न कोऽपि ॥७॥ यत् यथा । प्रक्षेषु पत्राणि पुष्पाणि फलानि भवन्ति नूनम् । पुनः स्वकाले प्राप्य पतन्ति । तद्वतया । अमु पुरुषाः भवन्ति । च पुनः पतन्ति । अत्र लोके । सन्मतीनों भम्यानाम् । हर्षेण किम् । पुनः। शोकेन किम् । न किमपि ॥ ८ ॥ अत्र संसारे । दुर्लक्षात् दुर्निवारात भवितव्यतास्वरूपात । प्रिये मानुषे नष्टे सति । यत् शोकः क्रियते तत् । तमसि अन्धकारे । नर्दनं प्रारभ्यते । अहो इति संयोधने । भो भव्याः । भुबने संसारे । सर्व वस्तु । नश्वर विनश्वरम् । मत्वा शाला। महत्या पिया गरिष्ठबुद्धधा । सदा धर्मः सेव्यताम् । किंलक्षणो धर्मः। निधूता स्फेटिता अखिमदु:ससंततिः येन सः ॥५॥ यस्य भविनः जीवस्य । पूर्वोपार्जिवकर्मणा । यदा यस्मिन्नमये । अवसानम् अन्तः नाशः । बिलिखितम् । तस्स मसिनः बोरस ।
होनेके लिये होता है उसी प्रकार निश्चयसे समस्त प्रामियोंका यह शरीर भी नष्ट होनेके लिये उत्पन्न होता है। फिर कालको पाकर अपने किसी बन्धु आदिका भी मरण होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष उसके लिये शोक करता है ! अर्थात् उसके लिये कोई भी बुद्धिमान् शोक नहीं करता ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्यका उदय अस्तफा अविनाभावी है उसी प्रकार शरीरकी उत्पत्ति भी विनाशकी अविनाभाविनी है। ऐसी स्थितिमें उस विनश्वर शरीरके नष्ट होनेपर उसके विषयमें शोक करना विवेकहीनताका घोतक है ॥ ७॥ जिस प्रकार वृक्षोंमें पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चयसे गिरते भी हैं, उसी प्रकार कुलों (कुटुम्ब ) में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी हैं । फिर बुद्धिमान् मनुष्यों को उनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और मरनेपर शोक क्यों होना चाहिये ? नहीं होना चाहिये ॥८॥ दुर्निवार दैवके प्रभावसे किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर जो यहां शोक किया जाता है वह अंधेरेमें नृत्य प्रारम करनेके समान है । संसारमें सभी वस्तुएं नष्ट होनेवाली हैं, ऐसा उत्तम बुद्धिके द्वारा जानकर समत दुःखोंकी परम्पराको नष्ट करनेवाले धर्मका सदा आराधन करो ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार अन्धकारमें नृत्यका प्रारम्भ करना निष्फल है उसी प्रकार किसी प्रियजनका वियोग हो जानेपर उसके लिये शोक करना भी निष्फल ही है । कारण कि संसारके सब ही पदार्थ स्वभावसे नष्ट होनेवाले हैं, ऐसा विवेकबुदिसे निश्चित है । अत एव जो धर्म समस्त दुःखोंको नष्ट करके अनन्त सुख (मोक्ष) को प्राप्त करानेवाला है उसीका आराधन करना चाहिये ॥ ९॥ पूर्वमें कमाये गये कर्मके द्वारा जिस प्राणीका अन्त जिस समय लिला गया है उसका उसी समयमै अन्त होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर भी शोकको छोड़ो और विनयपूर्वक सुखदायक धर्मका आराधन करो। ठीक है- अब सर्प दूर चला जाता है