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१. अमिस्थपवारा 278) तडिदिव चलमेतस्पुत्रदारादि सर्व किमिति तदमिधाते सियते पुसिमनिः।
. स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवानलस्य व्यभिचरति कदाचिस्सर्वमावेषु नूनम् ॥ २६ ॥ 279) प्रियजनमृतिशोका सेव्यमानो ऽतिमात्र जनयति तवसातं कर्म यमाप्रतो ऽपि।
प्रसरति शतशाख देहिनि क्षेत्र उप्तं वट हव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयनात् ॥ २७ ॥ 280) आयुःक्षतिः प्रतिक्षणमेसम्मुखमन्तकस्य तत्र गताः।
सर्वे जनाः किमेका शोधयत्ययं मृतं मूढः ॥ २८॥
पुनः । यथा चन्द्रः उदयम् अस्तं पूर्णता हीनता लभते । तथा प्राणी उदयम् मस्त्र पूर्णता हीमती लभते । पुनः । यथा मनः कलषितहदयः सन् । राशेः सकाशात् राशिं याति । इह संसारे। तथा प्राणी ! तनुतः शरीरात् । तनुं धारीरम् । याति। तत्तस्मात् । अत्र संसारे । मुत् का हः कः । च पुनः । शोकः कः । न च शोको न च इर्षः ॥ २५॥ भो भव्याः । एतत्पुत्रदारादि सर्वम् । तडिदिव चलं विद्युत् इव चपलम् । इति शात्वा । तदभिघाते सत्पुत्रादिक अभिधाते सति मूते सति । बुद्धिमतिः कि खिद्यते । मपि सुन खिद्यते । नून निश्चितम् । सर्वभावेषु पदार्येषु षद्रव्येषु । स्थितिजननविनाशं कदाचित् नो व्यभिचरति । यथा अनलस्य अमेः । उष्णता न व्यमिचरति अमेः उष्णता न दीभवति ॥ २६॥ प्रियजनमृतिशोकः। अतिमात्रम अतिशयेन । सेव्यमानः । तत् अत्र असास कर्म जनयति पापकर्म उत्पादयति । च पुनः । यत्कर्म । अप्रतः अमे। देहिनि बीथे। शतशाख प्रसरति । यथा वटवी सनुरपि लघुरपि बीजम् । क्षेत्रे उर्स कपितम् । शतशाल प्रसरति । इति मत्वा स शोषः। प्रयत्नात त्यज्यताम् ॥ २७॥ मायुःक्षतिः भायुर्विनाशः । प्रतिक्षण समय समयं प्रति । एतत् अन्तकस यमस्म मुखम् ।
आकाशमें निरन्तर चकर लगाता रहता है उसी प्रकार यह प्राणी सदा संसारमें परिभ्रमण करता रहता है; जिस प्रकार चन्द्रमा उदय, अस्त एवं कलाओंकी हानि वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी जन्म, मरण एवं सम्पत्तिकी हानि वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है। जिस प्रकार चन्द्रमा तथा मध्यमें कल्लषित (काला) रहता है उसी प्रकार संसारी प्राणीका हृदय भी पापसे कलुषित रहता है, तथा जिस प्रकार चन्द्रमा एक राशि ( मीन-मेष आदि) से दूसरी राशिको प्राप्त होता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण किया करता है । ऐसी अवस्थाके होनेपर सम्पत्ति और विपतिकी प्राप्तिमें प्राणीको हर्ष और विषाद क्यों होना चाहिये ? अर्थात् नहीं होना चाहिये ।।२५|| ये सब पुत्र एवं स्त्री आदि पदार्थ जब बिजलीके समान चंचल अर्थात् क्षणिक हैं तब फिर उनका विनाश होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य खेदखिन क्यों होते हैं । अर्थात् उनके नश्वर स्वभावको जानकर उन्हें खेदखिन्न नहीं होना चाहिये । जिस प्रकार उध्यता अग्निका व्यभिचार नहीं करती, अर्थात् वह सदा अमिके होनेपर रहती है और उसके अभावमें कभी भी नहीं रहती है। ठीक उसी प्रकारसे स्थिति (ध्रौव्य), उत्पाद और व्यय भी निश्चयसे पदार्थोंके होनेपर अवश्य होते हैं और उनके अभावमें कभी भी नहीं होते हैं ।। २६ ।। प्रियजनके मरनेपर जो शोक किया जाता है वह तीत्र असातावेदनीय कर्मको उत्पन्न करता है जो आगे ( भविष्यमें) भी विस्तारको प्राप्त होकर प्राणीके लिये सैकड़ों प्रकारसे दुःख देता है । जैसे-योग्य भूमिमें बोया गया छोटा-सा मी वटका बीज सैकड़ों शाखाओंसे संयुक्त वटवृक्षके रूपमें विस्तारको प्राप्त होता है । अत एव ऐसे अहितकर उस शोकको प्रयक्षपूर्वक छोड़ देना चाहिये ॥२७॥ प्रत्येक क्षणमें जो आयुकी हानि हो रही है, यह यमराजका मुख है। उसमें ( यमराजके मुखमें ) सब ही प्राणी पहुंचते हैं, अर्थात् समी प्राणियोंका भरण अनिवार्य है। फिर एक प्राणी दूसरे प्राणीके मरनेपर शोक क्यों करता है! अर्थात् जब समी संसारी प्राणियोंका मरण