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२. पामोपदेशन 231) मिथ्यावशो ऽपि सचिरेष मुनीन्द्रवाने पचात् पशोरपि हि जन्म सुमोगभूमी।
कल्पारिपा दवति यत्र लदेपिसतानि सर्वाणि तब विदधाति न कि सुहष्टेः ॥ ३३॥ 232) मान सम्माइने मनीण तयोग्यसपदि हामिमुले व पात्रे ।
प्राप्त खनावतिमहार्यतेर विहाय रकं करोति विमतिलभूमिमेवम् ॥ ३४॥ 283) नया मणीरिव चिराजलधौ भवे ऽसिमासाच चाहनरतार्थ जिनेश्वराक्ष
दान न यस्य स जना प्रविशेत् समुद्र सच्छिद्रनावमषिवध ग्रहीतरकः ॥ ३५॥ भविष्यति । [इति] जानाति । समदानहेतुः उत्तमवानयोम्यं द्रव्यं कदा भविष्यति ॥ ३२ ॥ यतः। मिप्यारशः पशोः भपि मुनीन्द्रदाने रुतिः । एव निश्चयेन । एभोगभूमौ । अन्म उत्पत्तिः । दधात् कर्यात् । भपि। यत्र भोगभूमौ ।
पाधिपाः कल्पाक्षाः। सदा सर्वदा । सर्वाणि । ईप्सितानि वाणिशानि फलानि । ददति प्रयच्छन्ति । तत्र मोगभूमौ । सुरः भन्यजीवस्य । सर्व वाष्पितफलम् । किन विदयातिन करोति । भपितु विदधाति ॥ ३४॥ यस्य परस्य वारकरस्य । मनीषा इदि । दानाम । न समुसहते वरसाई न करोति । क सल्याम् । तयोरसंपवि सत्या तस्स दानप योम्मा या संपत् सा तस्मा सोम्योपदि । क सति । व पुनः । पात्र उमापारे । गृहाभिमुरे सति गईसन्मुखे वागते सति । यो वान' गयादि । स विमतिः मूढः । सनौ भाकरे। मतिम हार्यतरे पाहुमूल्यम् । र प्राप्तम् । बिहाम त्यत्वा । तमभूमिभेद करोति ॥ १४ ॥ अस्थिम् भवे संसारे। पार-मनोशा-भरता-मनुष्यपद-ग-अग्य-जिनेश्वरमाहाम भासाद्य प्राप्य । चिरात् । जलधौ समुदे । नहा मणीः इव यथा दुर्लभा तथा नरत दुर्लमम् । यस्य पान न सका ग्रहीतरमः । समिछानावम् हो सके, यह कुछ कहा नहीं जा सकता है ॥ विशेषार्थ-जिनके पास अधिक द्रव्य नहीं रहता ये प्रायः विचार किया करते हैं कि जब उपयुक्त धन प्राप्त होगा तब हम दान करेंगे। ऐसे ही मनुष्योंको लक्ष्य करके यहां यह कहा गया है कि प्रायः इच्छानुसार द्रव्य कमी किसीको भी प्राप्त नहीं होता है । अत एव अपने पास जितना भी द्रव्य है तदनुसार प्रत्येक मनुष्यको प्रतिदिन थोड़ा-बहुत दान देना ही चाहिये ॥ ३२ ॥ मिप्याष्टि पशुकी मी मुनिराजके लिये दान देने में ओ केवल रुचि होती है उससे ही वह उस उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है जहांपर कि कल्पवृक्ष सवा उसे सभी प्रकारके अभीष्ट पदार्थोंको देते हैं। फिर मला यदि सम्यादष्टि उस पात्रदानमें रुचि रक्खे तो उसे क्या नहीं प्राप्त होता है ! अर्थात् उसे तो निश्चित ही वांछित फल प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ दानके योग्य सम्पत्तिके होनेपर तथा पात्रके भी अपने गृहके समीप आ जानेपर जिस मनुष्पकी बुद्धि दानके लिये उत्साहको प्राप्त नहीं होती है वह दुर्मुद्धि खानमें प्राप्त हुए अतिशय मूल्यवान् रलको छोड़कर पृथिवीके तलभागको व्यर्थ खोदता है ।। ३४ ! चिर कालसे समुद्र में नष्ट हुए मणिके समान इस मवमें उत्तम मनुष्य पर्याय, धन और जिनवाणीको पाकर जो दान नहीं करता वह मूर्ख रत्नोंको ग्रहण करके छेदवाली नावमें चढ़कर समुद्र में प्रवेश करता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार समुद्रमें गये हुए मणिका फिरसे प्राप्त होना अतिशय कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय आदिका भी पुनः प्राप्त होना अतिशय कठिन है। वह यदि भाग्यवश किसीको प्राप्त हो जाती है, और फिर भी यदि वह दानादि शुम कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होता है तो समझना चाहिये कि जिस प्रकार कोई मनुष्य बहुमूल्य रोको साथमें लेकर सच्छिद्र नावमें सवार होता है और इसीलिये वह उन रत्नोंके साथ स्वयं भी समुद्र में डूब जाता है, इसी प्रकारकी अवस्था उक्त मनुष्यकी भी होती है। कारण कि भविष्य सुखी होनेका साधन जो दानादि कार्योसे उत्पन होनेवाला पुण्य था उसे
प्रतिपाठोऽपम् । नापति महायता । २-प्रतिपाठोऽयम् । विनेषराशा, बजिनेश्वराजा ।। गो। ४पाने । ५बिनेश्वरमावा. कविनेश्वराया।