Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 128
________________ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [219:२२१219) दानाय यस्य न धनं न वपुर्वताय नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम् । तझन्म केवलमलं मरणाय भूरिसंसारदुःखमृतिजात्तिनिवन्धनाय ॥२१॥ 220) प्राप्ते नृजन्मनि तपः परमस्तु जन्तोः संसारसागरसमुत्तरणैकसेतुः । मा भूविभूतिरिह बन्धनहेतुरेव देवे गुरौ शमिनि पूजनदानहीना ॥ २२॥ 221) भिक्षा वर परिहताखिलपापकारिकार्यानुबन्धविधुराधिसचित्तवृत्तिः । सत्पात्रदानरहिता विततोप्रदुःखदुर्लयदुर्गतिकरी न पुनर्विभूतिः ॥ २३ ॥ 222) पूजा न चेजिनपते पदपङ्कजेषु दान न संयतजनाय व भक्तिपूर्वम् । 'नो दीयते क्रिमु ततः सदनस्थितायाः शीघ्रं जलाअलिरगाधजले प्रविश्य ।। २४ ।। 223) कार्य तपः परमिह भ्रमता भवान्धौ मानुष्यजन्मनि चिरादतिदुःखलब्धे । संपद्यते न तवणुतिनापि भाव्यं जायेत चेदहरहः किल पात्रदानम् ॥ २५ ॥ लक्षम्याश्रितस्य । आगामिकालफलदायि किश्चित् न । अतः कारणात् पुण्यरावियुकः नरः श्रेष्ठः ॥ २०॥ यस्य श्रावकस्य : धनं दानाय न। यस्य श्राक्षकस्य वा मुनेः । वपुः शरीरं बताय न । एवम् अमुना प्रकारेण । यस्य धावकस्य 1 श्रुतं शानश्रवणम् । नित्यम् । उपशमाय उपशमनिमित्तं नाच पुनः। तस्य नरस्य जन्म मनुष्यपर्यायः। केवलम् अलम् अत्यधम् । मरणाय भवति। भरि-बहरू-संसारतुःखमृत्ति-मरण-जाति-निबन्धनाय कारणाय भवति ॥ २१॥ इह संसारे। अन्तोः जीवस्य । नृजन्मनि प्राप्ने सति । परं तपः मस्तु । किलक्षणं तपः । संसारसागरसमुत्तरणकसेतुः संसारतरणे प्रोहणम्। पुनः देवे गुरौ । शमिनि मुनौ । पूजनदानहींना विभूतिः मा भूत् । किंलक्षणा विभूतिः । बन्धनहेतुः कर्मबन्धनकारिणी ॥ २२ ॥ भिक्षा । पर श्रेष्ठम् । पुनः सत्पात्रदानरहिता विभूतिः न बरा न श्रेष्ठा । किं लक्षणा भिक्षा । परिहतात्यक्ता-अखिलपापकारिकार्यानुबन्ध-विधुराश्रितचित्तवृत्ति: मया सा । किंलक्षण विभूतिः । वितता विस्तीर्णा । उप्रदुःखदुर्लक्यदुर्गतिकरी पुनः विभूतिः न कार्या ॥ २३ ॥ चेत् जिनपतेः पदपरमेषु पूजा न क्रियते। च पुनः। संयतजनाथ मुनये । दानं भकिपूर्व न दीयते । ततः कारणात् । सदनस्थितायाः गृहस्थतायाः। शीघ्र जलाइलिः किमु नो दीयते । अपि तु हीयते । किं कृत्वा । अगाधनले प्रविश्य ।। २४ ॥ इह जगवि । भषाम्धौ संसारसमुद्रे । ऐसे पुण्यका संचय कर लिया है वह आगामी कालमें सुखी रहेगा। किन्तु जिस व्यक्तिने वैसे पुण्यका संचय नहीं किया है वह वर्तमानमें राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर भी भविष्यमें दुःखी ही रहेगा ॥ २० ॥ जिसका धन दानके लिये नहीं है, शरीर व्रतके लिये नहीं है, इसी प्रकार शाखाभ्यास कषायोंके उत्कृष्ट उपशमके लिये नहीं है; उसका जन्म केवल सांसारिक दुःख, मरण एवं जन्मके कारणमूत मरणके लिये ही होता है ॥ विशेषार्थ-जो मनुष्य अपने धनका सदुपयोग दानमें नहीं करता, शरीरका सदुपयोग व्रतधारणमें नहीं करता, तथा आगममें निपुण होकर भी कषायोंका दमन नहीं करता है वह बार बार जन्म-मरणको धारण करता हुआ सांसारिक दुःखको ही सहता रहता है ।। २१ ॥ मनुष्यजन्मके प्राप्त हो जानेपर जीवको उत्तम तप ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, वह संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये अपूर्व पुलके समान है। उसके पास देव, गुरु एवं मुनिकी पूजा और दानसे रहित वैभव नहीं होना चाहिये; क्योंकि, ऐसा वैभव एक मात्र बन्धका ही कारण होता है ॥ २२ !! पापोत्पादक समस्त कार्योंके सम्बन्धसे रहित ऐसी चित्तवृत्तिका आश्रय करनेवाली मिक्षा कहीं श्रेष्ठ है, किन्तु सत्पात्रदानसे रहित होकर विपुल एवं तीव्र दुखोंसे परिपूर्ण दुर्लव्य नरकादिरूप दुर्गतिको करनेवाली विभूति श्रेष्ठ नहीं है ।। २३ ।। जिस गृहस्य अवस्थामें जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंकी पूजा नहीं की जाती है तथा भक्तिपूर्वक संयमी जनके लिये दान नहीं दिया जाता है उस गृहस्थ अवस्थाके लिये अगाघ जलमें प्रविष्ट होकर क्या शीघ्र ही जलसंजलि नहीं देना चाहिये । अर्थात् अवश्य देना चाहिये ॥ २४ ॥ यहां संसाररूप समुद्रमें परिश्रमण करते हुए यदि चिर १२ क यः। २ कवभि। ३ श सा कायाः निलाक्षणा । ४ विवतविस्तीर्णाः, कवितविस्तीर्ण।

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