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पमान्दि-पशविंशति सपा छन्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रघुद्धा
भीमो माया यस गणानिधारमनि रियाः । १२८ ॥ 129 ) तयायत तात्पर्याज्योति सचिन्मयं विना यस्मात् ।।
सदपि न सत् सति यस्मिन् निश्चितमाभासते विश्वम् ॥ १२९ ॥ 180 ) असो यदवकोटिमिः क्षपयति खं कर्म तसाद
स्वीकुर्वन् कृतसंबर। स्थिरमना शानी तु तत्तत्क्षणात् । तीक्ष्णलेशहयाभिवोऽपि हि पदं नेष्ट तपास्यन्दनो
नेयं तनयति प्रभु स्फुटतरणानेकस्तोजिमतः ॥ १३० ॥ सिद्धान्तपथानुभूतिजागरिताः । आत्मनि यतश्चम् । किलक्षणा मव्याः। गवगमनिधी रजनये। प्रातिभाजा रजत्रयम् आश्रिताः ॥११८॥ तात्पात् निश्चयेन । तत् विश्मय ज्योतिःभ्यायत । किलक्षणं ज्योतिः । सत् विद्यमानम् । निश्चितम् । यस्मात् ज्योतिषः विना । विश्व समस्खकोकम् । सत् भपि म सत् विद्यमानम् अपि अविद्यमानम् । यस्मिन् ज्योति प्रकाशे सति । विध समस्तम् । भाभासते प्रकाशवे ॥१२९॥ अशः मूर्खः । यत् सं कम : भवकोरिभिः पर्यामकोटिभिः कृत्वा सपयति । तस्मात् कर्मणः । बहु कर्म खीकुर्वन् अङ्गीकरोति । तु पुनः । कृतसंवरः स्थिरमनाः ज्ञानी पुमान् । तत् कर्म । तत्क्षणात् पयति । दृष्टान्तमाह 1 हि यतः। तपःस्पन्दनः तपोरयः । नेयं राजानम् आस्मान प्रमुम् । इष्टं पदं मोक्षपवम् । न नयति । किलक्षणः तपोरथः । स्फुटतरज्ञानेकसूतोज्झितः प्रकटशामसारथिरहितः । पुनः किंलक्षणः सपोरयः । तीक्ष्णलेषाहयाश्रितः अपि तीक्ष्णाक्लेशघोटकसहितोऽपि ॥ १३०॥ रहनेपर सिद्धान्तके मार्गसे प्राप्त हुए आत्मानुभवनसे प्रबोधको प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी निधिस्वरूप आत्माके विषयमें प्रीतियुक्त होकर प्रयत्न कीजिये- उसकी ही आराधना कीजिये । विशेषार्थअस्पताके कारण हम लोग जिन परोक्ष पदार्थोके विषयमें कुछ भी निश्चय नहीं कर सकते हैं उनके विषयमें हमें जिनेन्द्र देवकों, जो कि राग द्वेषसे रहित होकर सर्वज्ञ भी है, प्रमाण मानना चाहिये । यद्यपि वर्तमानमें वह यहा विधमान नहीं है तथापि परम्पराप्राप्त उसके वचन (जिनागम) तो विद्यमान है ही। उसके द्वारा प्रबोधको प्राप्त होकर भव्य जीव आत्मकल्याण करनेमें प्रयाशील हो सकते हैं ॥ १२८॥ चैतन्यमय उस उत्कृष्ट ज्योतिका तत्परतासे ध्यान कीजिये, जिसके विना विद्यमान भी विश्व अविद्यमानके समान प्रतिभासित होता है तभा जिसके उपस्थित होनेपर वह विश्व निश्चित ही यथार्थस्वरूपमें प्रतिभासित होता है ॥ १२९॥ अज्ञानी जीव अपने जिस कर्मको करोड़ों जन्मोंमें नष्ट करता है तथा उससे बहुत अधिक ग्रहण करता है उसे ज्ञानी जीव स्थिरचित्त होकर संवरको प्राप्त होता हुआ तत्क्षण अर्थात् क्षणभरमें नष्ट कर देता है । ठीक है-तीक्ष्ण क्लेशरूपी घोड़ोंके आश्रित होकर भी तपरूपी रथ यदि अतिशय निर्मल ज्ञानरूपी अद्वितीय सारथिसे रहित है तो यह अपने ले जानेके योग्य प्रमु ( आमा और राजा) को अभीष्ट स्थानमें नहीं प्राप्त करा सकता है । विशेषार्थ-जिस प्रकार अनुभवी सारथी (चालक) के विना शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा खींचा जानेवाला भी स्य उसमें बैठे हुए राजा आदिको अपने अभीष्ट स्थानमें नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके विना किया जानेवाला तप दुःसह कायझेशोंसे संयुक्त होकर भी आत्माको मोक्षपदमें नहीं पहुंचा सकता है । यही कारण है कि जिन फर्मोको अज्ञानी जीव करोड़ों भवोंमें भी नष्ट नहीं कर पाता है उनको सम्यग्ज्ञानी जीव क्षणभरमै ही नष्ट कर देता है। इसका भी कारण यह है कि अज्ञानी प्राणी के निर्जराके साथ साथ नवीन कोका आसव भी होता रहता है, अतः वह कर्मसे रहित नहीं हो पाता है। किन्तु इसके विपरीत ज्ञानी जीवके जहां नवीन कमोंका आस्रव रुक जाता है वहां पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है। अतएव