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पचनदि-पश्चशितिर
11401१-२४०140) मवरिपुरिह वायदुःखदो याषवात्मन्
तव विनिहितधामा कर्मसंश्लेषदोषः। स भवति किल रागद्वेषतोत्सदादी
सटिति शिवसुखार्थी यजतस्सी जहीहि ॥ १० ॥ 141) लोकस्य त्वं न कधिन स सथ यदिह स्वार्जितं भुज्यते का
संबन्धस्तेन साधं तदसति सति वा सत्र की रोषतोषी। काय अन्य अडत्वा धनुमतसुरम्पदावधि समाषा
देवं निश्चिस्य हंस स्ववलमनुसर स्थाथि मा पश्य पार्श्वम् ॥ १४ ॥ 142) आस्सामन्यगतौ प्रतिक्षणलसहुःखाश्रितायामहो
देवत्वे ऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्ये ऽणिमादिनिया। तावत्कालम् दुःखदः वर्तते यावस्काले कर्मसंवदोष अस्ति । किलक्षणः कर्मसंश्लेषदोषः । तर विनिहितधामा आच्छादिततेजाः। किल इति सत्ये । स कर्मसंश्लेषदोषः रागद्वेषदेतोः सकाशात् भवति । तस्मात् पादौ प्रथमतः । झारिति शीघ्रण । यमतः शिवमुखापी । तौ रागद्वेषौ । अहीहि त्या ॥ १४॥ भो इस भो भास्मन् । एवं निश्चित्य । खबझम् अनुसर भात्मबल सार । पार्थ संसारनिकटम् । स्थायि स्थिरम् । मा पश्य । एवं कचम् । लोकस्य त्वं कश्चित् न । तवत लोकः कश्चिम । यत् यस्मात् । इह संसारे। खार्जित भुज्यते सकर्म मुज्यते । तेन लोकेन । सार्थ संबन्धः । तत् तस्मात् कारणात् । असति सति वा असाधी साधी वा । तत्र लोके । रोषतोषौ को हर्षविषादी को । काये शरीरे धपि । एवम् अमुना प्रकारेण । जडत्वात् । तदनुगतसुखादौ तस्य शरीरस्य संलमइन्द्रि यमुखादौ । अपि रोषतोषी को। कस्मात् । व्यसभावात् विनाशभावात् ॥ १४१ ॥ रे जीव भो बारमन् । तत्तस्मात्कारणात् । निस्यपदं प्रति मोक्षपदै प्रति । निक्षेपोंके विधानसे अप्रकृतका निराकरण और प्रकृतका प्रहण होता है ।।१३९॥ हे आत्मन् । यहां संसाररूप शत्रु तब तक ही दुःख दे सकता है जब तक तेरे भीतर ज्ञानरूप ज्योतिको नष्ट करनेवाला कर्मबन्धरूप दोष स्थान प्राप्त किये है। वह कर्मबन्धरूप दोष निश्चयतः राग और द्वेषके निमितसे होता है । इसलिये मोक्षसुखका अभिलाषी होकर तू सर्वप्रथम शीघ्रतासे प्रयापूर्वक उन दोनोको छोड़ दे ।। १४० ॥ हे आत्मन् ! न तो तुम लोक ( कुटुम्बी बन आदि) के कोई हो और न वह भी तुम्हारा कोई हो सकता है। यहां तुमने जो कुछ कमाया है वही भोगना पड़ता है। तुम्हारा उस लोकके साथ भला क्या सम्बन्ध है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। फिर उस लोकके न होनेपर विषाद और उसके विद्यमान होनेपर हर्ष क्यों करते हो! इसी प्रकार शरीरमें राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वह जड़ (अचेतन) है। तथा शरीरसे सम्बद्ध इन्द्रियविषयभोग जनित सुखादिकमें भी तुम्हें रागद्वेष करना उचित नहीं है, क्योंकि, वह विनश्वर है। इस प्रकार निश्चय करके तुम अपनी स्थिर आत्मशक्तिका अनुसरण करो, उस निकटवर्ती लोकको स्थायी मत समझो ॥ विशेषार्थ-कुटुम्ब एवं धन-धानादि बाब सब पदार्थोंका आत्मासे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वे प्रत्यक्षमें ही अपनेसे पृथक् दिग्पते हैं । अतएव उनके संयोगमें हर्षित और वियोगमें खेदखिन्न होना उचित नहीं है । और तो क्या कहा जाय, जो शरीर सदा आत्माके साथ ही रहता है उसका भी सम्बन्ध आत्मासे कुछ भी नहीं है। कारण कि आत्मा चेतन है और शरीर अचेतन है। स्पर्शनादि इन्द्रियोंका सम्बन्ध भी उसी शरीरसे है, न कि उस चेतन आत्मासे । इन्द्रियविषयभोगोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख विनश्वर है - स्थायी नहीं है। इसलिये हे आत्मन् ! शरीर एवं उससे सम्बद्ध सुख-दुःखादिमें राग द्वेष न करके अपने स्थायी आरमरूपका अवलोकन कर ।। १४१ ॥ हे आस्मन् । क्षण-क्षणमें होनेवाले दुःखकी स्थानभूत अन्य
१. गिरि। २० प्रथमः ।