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पनमन्दि-पश्चशितिः
[183 : १-१९३. भास्मा धमों यदयममुखस्फीतसंसारगा
दुइल्य वं सुखमयपदे धारयस्थात्मनैव ॥ १३॥ 134) मो शूभ्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्वभावं गतो
मैको न क्षणिको न विश्वविततो निस्यो न चैकान्ततः । कथमपि स्वास्थ्य काया प्राप्य । सद्योगमुद्रावशेष ध्यानमुबारहस्ययुकम् ॥ ११॥ आत्मा एकान्ततः शूत्यो न बोन भूतबनितः पृपिव्यादिजनितो न कर्तभावं गतः म । भास्मा एकान्ततः एकोम। भारमा क्षणिको म । मामा विश्वविततो न। भात्मा नियो न । म्यवहारेण आत्मा काममितेः कायप्रमाणः । सम्यक् विदेकनिलयः । व पुनः । कर्ता खमं भोक्ता । (मोक्ष) में प्राप्त कराता है उसे धर्म कहा जाता है। कोंके उपशान्त होनेसे प्राप्त हुई द्रव्य क्षेत्र-काल-भावरूप सामग्रीके द्वारा अनन्तचतुष्टयस्वरूप स्वास्थ्यका लाभ होता है । इस अवस्थामें एक मात्र ध्यानमुद्रा ही शेष रहती है, शेष सब संकल्प-विकल्प छूट जाते हैं । अब यह आत्मा अपने आपको अपने द्वारा ही संसाररूप गड्डेसे निकालकर मोक्षमें पहुंचा देता है। इसीलिये उपयुक्त निरुक्ति के अनुसार वास्तवमै आत्माका नाम ही धर्म है-उसे छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता है॥ १३३ ॥ यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथिव्यादि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है, भौर न नित्य ही है। किन्तु चैतन्य गुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्ता और भोक्ता भी है। वह आत्मा प्रत्येक क्षणमें स्थिरता (प्रौव्य), विनाश (व्यय) और जनन (उत्पाद) से संयुक्त रहता है। विशेषार्थ-भिन्न भिन्न प्रवादियों के द्वारा आत्माके स्वरूपकी जो विविध प्रकारसे कल्पना की गई है उसका यहां निराकरण किया गया है । यथा - शून्यैकान्तवादी (माध्यमिक) केवल आत्माको ही नहीं, बल्कि समस्त विश्वको ही शून्य मानते हैं । उनके मतका निराकरण करनेके लिये यह! 'एकान्ततः नो शून्यः अर्थात् आत्मा सर्वथा शून्य नहीं है, ऐसा कहा गया है। वैशेषिक मुक्ति अवस्था बुझ्यादि नौ विशेष गुणोंका उच्छेत् मानकर उसे जड जैसा मानते हैं। संसार अवस्थामें भी वे उसे स्वयं वेतन नहीं मानते, किन्तु चेतन ज्ञानके समवायसे उसे चेतन स्वीकार करते हैं जो
औपचारिक है। ऐसी अवस्थामें वह स्वरूपसे जड ही कहा जावेगा । उनके इस अभिप्रायका निराकरण करनेके लिये यहाँ 'न अब' अर्थात् वह जर नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है। चाफमसानुयायी आत्माको पृथिवी आदि पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ मानते हैं। उनके अभिप्रायानुसार उसका अस्तित्व गर्भसे मरण पर्यन्त ही रहता है-गर्भके पहिले और मरणके पश्चात् उसका अस्तित्व नहीं रहता । उनके इस अभिप्रायको दूषित बतलाते हुए यहां 'न भूतजनितः' अर्थात् वह पंच भूतोंसे उत्पन्न नहीं हुआ है, एसा कहा गया है । नैयायिक आत्माको सर्वथा कर्ता मानते हैं । उनके अभिप्रायको लक्ष्य करके यहाँ 'नो कर्तभावं गतः' अर्थात् वह सर्वथा कर्तृत्व अवस्थाको नहीं प्राप्त है, ऐसा कहा गया है। पुरुषाद्वैतवादी केवल परब्रह्मको ही स्वीकार करके उसके अतिरिक्त समस्त पदार्थोंका निषेध करते हैं । लोक, जो विविध प्रकारके पदार्थ देखनेमें आते हैं उसका कारण अविद्याजनित संस्कार है । इनके उपर्युक मतका निराकरण करते हुए यहाँ निका' अर्थात् आत्मा एक ही नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है। बौद्ध (सौत्रान्तिक) उसे सर्वथा क्षणिक मानते हैं । उनके अभिप्रायको सदोष बतलाते हुए यहां
१. भूतमनितो न। २ मा कामितिः। PM कायरमाणम् ।