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पचनन्दि-पश्चविंशतिः
ता नित्यं यन्मुमुनुर्यतिरमलमतिः शान्तमोहः प्रपश्येखामीः पुत्रः सवित्रीरिव हरिणदशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम् ॥ १०४ ॥ 105) अविरतमिह तात्पुण्यभाजो मनुष्याः हृदि विरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदी प्रतिदिनमतिननास्ते ऽपि नित्यं स्तुवन्ति ॥ १०५ ॥ 106) वैराग्यत्यागाद्वयकृतरचना चारुनिश्रेणिका यैः पादस्थानैरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चनः । arrer rates frवपवसवनं गन्तुमित्येषु केष नो धर्मेषु त्रिलोकी पतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु दृष्टिः ॥ १०६ ॥
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नर्मलःपुनः लक्षणो यतिः । शान्तमोहः उपशान्तमोहः । यत्संगाधारं यासां स्त्रीणां संगाधारम् । एतत्संसारचक्रम् । लघु क्षीण । चलति । च पुनः । किंलक्षणे संसारचक्रम् तीक्ष्णदुःखौघधारं तीक्ष्णः खधारासहितम्। पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । मृत्पिण्डीभूतभूतं मृतप्राणिपिण्डसदृशम् (१) । पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । कृतबहुविकृति भ्रान्ति कृतबहुविकारस्वरूपम् एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तम् ॥ ९०४ ॥ इद्द जगति विषये पुण्यभाजः मनुष्याः । कामिनीमां स्त्रीणाम् । हृदि । अविरतं निरन्तरम् । तावत् सदैव वसन्ति । पुनः येषां पुण्ययुक्तानाम् । हृदि । ताः विरचितरागाः । कामिन्यः श्रियः । जातु कदाचित्। कथमपि न वसन्ति । तेऽपि पुण्ययुक्ताः नराः । अविनम्राः । तदषी तेषां मुनीनाम् अघी चरणौ । नित्यं स्तुवन्ति ॥ १०५ ॥ इति एषु धर्मेषु केष जीवानां हृष्टिः दर्षः नो, तु सर्वेषाः। भेदधर्मेषु । त्रिलोकीपतिभिः इन्द्रधरणेन्द्रचक्रभिः । सदा स्तूयमानेषु स्तुत्यमानेषु (?) 1 यैः दशभिः निश्चलैः उदारैः उत्कटैः पादस्थानैः कृत्वा वैराग्यत्यागदा स्वकृतरचना चारुनिश्रेणिका अनुगता प्राप्ता । मनोज्ञा सा इयं निःश्रेणिका । चित्रपदसदनं गृहम् । गन्तुम् । आरक्षोः सुनेः चटितुमिच्छोः । ज्ञानदृष्टेः मुनीरूप भ्रमको करने वाला है, ऐसा यह संसाररूपी चक्र जिन स्त्रियोंके आश्रयसे शीघ्र चलता है उन हरिणके समान नेत्रवाली स्त्रियों को मोहको उपशान्त कर देनेवाला मोक्षका अभिलाषी निर्मलबुद्धि मुनि सदा बहिन, बेटी और माता के समान देखे । यही उत्तम ब्रह्मचर्यका स्वरूप है ॥ विशेषार्थ - यहां संसार में चक्रका आरोप किया गया है । वह इस कारण से - जिस प्रकार चक्र (कुम्हारका चाक ) कीलके आधारसे चलता है उसी प्रकार यह संसारचक्र ( संसारपरिभ्रमण ) स्त्रियोंके आधारसे चलता है । चक्रमें यदि तीक्ष्ण धार रहती है तो इस संसारचक्रमें जो अनेक दुःखों का समुदाय रहता है वही उसकी तीक्ष्ण धार है, कुम्हारके चक्रपर जहां मिट्टीका पिण्ड परिभ्रमण करता है वहां इस संसारचक्रपर समस्त देहधारी प्राणी परिभ्रमण करते हैं, तथा जिस प्रकार कुम्हारका चक्र घूमते हुए मिट्टीके पिण्डसे अनेक विकारोंको- -सकोरा, घट, रांजन एवं कुंडे आदिकोउत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारचक्र मी अनेक विकारोंको जीवकी नरनारकादिरूप पर्यायोंको-उत्पन्न करके उन्हें घुमाता है । तात्पर्य यह है कि संसारपरिभ्रमणकी कारणभूत स्त्रियां हैं - तद्विषयक अनुराग है । उन स्त्रियोंको अवस्थाविशेषके अनुसार माता, बहिन एवं बेटी के समान समझकर उनसे अनुराग न करना; यह ब्रह्मचर्य है जो उस संसारचकसे प्राणीकी रक्षा करता है ॥ १०४ ॥ लोकमें पुण्यवान् पुरुष रागको उत्पन्न करके निरन्तर ही स्त्रियोंके हृदयमें निवास करते हैं। ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियोंके हृदयमें वे स्त्रियां कभी और किसी प्रकारसे भी नहीं रहती हैं उन मुनियोंकि चरणोंकी प्रतिदिन अत्यन्त नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ॥ १०५ ॥ वैराग्य और त्यागरूप दो कालखण्डोंसे निर्मित सुन्दर नसैनी जिन दस महान् स्थिर पादस्थानों (पैर रखनेके दण्डों ) से संयुक्त होकर मोक्ष-महल में जानेके लिये चढ़नेकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिके लिये योग्य होती है तीन लोकों के अधिपतियों (इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती ) द्वारा
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