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1. पपपेशामुक्त 84) मिथ्यादृशां विसरशी च पथच्युतानां मायाविना व्यसनिना च खलास्मनां च ।
संगं विमुञ्चत युधाः कुसोत्तमानां गन्तुं मतियदि समुन्नतमार्ग एवं ॥ ३४ ॥ 35) सिग्धैरपि मजत मा सह संगमेभिर क्षुदैः कदाचिदपि पश्यत सर्वपाप्याम् ।
बेहोऽपि संगतिकता लताश्रितानां लोकस्य पातयति निधितमक्षु नेत्रान् ॥ ३५ ।। 36) कलावेकः साधुर्भवसि कथमप्यत्र भुवने
स चाम्रातः क्षुद्रः कथमकरुणैर्जीयति चिरम् । अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि पिचरयचचरतां
बकोटानामने तरलशफरी गच्छति कियत् ॥ ३६ ॥ 37 ) यह रमनुभूतं भूरि दारिधःखं घरमतिषिकराले कालषको प्रवेश।
__ भवतु यरमितोऽपिलेशजाळं विशाल न च खलजनयोगाजीवितं वा धनं पा ॥३७॥ हित पाशिः हिततिबाच्छकैः ॥ ३३॥ भो बुधाः भो गण्डिताः । यदि चेत् । उनतमार्गे एक निश्चयेन गन्तु मतिरस्ति तदा मिथ्याशा संग चिमुच्चत । विसदृशा विपरीतानां संग बिमुघत । चकारप्रणात् पचरयुताना संग विमुञ्चत। व्यसनिना संगै विमुश्वत । मायाविना संग बिमुन्नत । खलास्मना संग विमुम्चत । मो जनाः उत्तमान संग कुरुत॥३४॥ भो बुधाः। एमिः शुरैः सह कदाचिदपि संग मा व्रजत । किलक्षणैः औः । निग्रैरपि बेइयुकेरपि । भो भव्याः । पश्यत । खलताश्रिताना सर्पपाणां बहोऽपि संगतिकृतः निश्चितं लोकस्य नेत्रादश्रु पातयति ॥ ३५॥ अत्र भुवने संसारे । कली पासमकाले । कथमपि एकः साधुर्भवति । स च साधुः । दैः आघ्रातः पीडितः । चिरं चिरकाल कथं जीवति । किलक्षणैः खः। अकरणैः दयारहितः । अतिप्रीष्मे ज्येष्ठावाडे [ज्येष्ठापाठयोः] । शुष्यत्सरसि शुष्कसरोवरे । बकोटानां बकानाम् अग्ने। तरलशफरी चलमत्सिका। कियद दूरे गच्छति । किलक्षणाना पकानाम् । विवरवधुबरताम् ॥३॥ इह संसारे। भूरिदाखियकुःखम् अनुभूतम् । वर श्रेष्ठम् । अतिविकराले अतिरहे । कालनको कालमुम्खे। प्रदेशः बरे शुभम् । इचः संसारात् । विशाल शिजाल
भवत वरम्। यदि उत्तम मार्गमें ही गमन करनेकी अभिलाषा है तो बुद्धिमान पुरुषोंका यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे मिध्यादृष्टियों, विसदृशों अर्थात् विरुद्ध धर्मानुयायियों, सन्मार्गसे प्रष्ट हुए, मायाचारियों, व्यसनानुरागियों तथा दुष्ट जनोंकी संगतिको छोड़कर उत्तम पुरुषोंका सत्संग करें ॥ ३४ ॥ उपर्युक्त मिथ्याइष्टि आदि क्षुद्र जन यदि अपने खेही भी हों तो भी उनकी संगति कभी भी न करना चाहिये । देखो, खलता ( तेल निकल जानेपर प्राप्त होनेवाली सरसोंकी खल भागरूप अवस्था, दूसरे पक्षमें दुष्टता) के आश्रित हुए क्षुद्र सरसोंके दानोंका खेह (तेल) भी संगतिको प्राप्त होकर निश्चयतः लोगों के नेत्रोंसे अक्षुओंको गिराता है ।। विशेषार्थजिस प्रकार छोटे भी सरसोंके दानोंसे उत्पन्न हुए मेह (तेल) के संयोगसे उसकी तीक्ष्णताके कारण मनुष्यकी आँखों से आंसू निकलने लगते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त क्षुद्र मिथ्यादृष्टि आदि दुष्ट पुरुषोंके मेह (प्रेम, संगति) से होनेवाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुखका अनुभव करनेवाले प्राणीकी भी आंखोंसे पश्चात्तापके कारण आंसू निकलने लाते हैं। अत एव आत्महितैषी जनोंको ऐसे दुष्ट जनोंकी संगतिका परित्याग करना ही चाहिये ॥ ३५ ॥ इस लोकमै कलिकालके प्रभावसे बड़ी कठिनाईमें एक आध ही साधु होता है । वह भी जब निर्दय दुष्ट पुरुषों के द्वारा सताया जाता है तब भला कैसे चिरकाल जीवित रह सकता है ! अर्थात् नहीं रह सकता । ठीक ही है-जब तीक्ष्ण श्रीष्मकालमें तालाबका पानी सूखने लगता है तम चोंचको हिलाकर चलनेवाले बगुलोंके आगे चंचल मछली कितनी देर तक चल सकती है। अर्थात् बहुत अधिक समय तक वह चल नहीं सकती, किन्तु उनके द्वारा मारकर खायी ही जाती है ॥ ३६ ॥ संसारमें निर्धनताके भारी दुखका अनुभव करना कहीं अच्छा है, इसी प्रकार अत्यन्त भयानक मृत्युके मुखमें प्रवेश करना भी कहीं अच्छ है, इसके अतिरिक्त यदि यहा और भी अतिशय कट प्राप्त होता है तो मह भी भले हो; परन्तु दुष्ट जनोंके सम्बन्धसे जीवित
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