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पश्चन्दि-पथिति
[25:१२५ वभ्याल सापि यस्मिन् ननु मृगमितामांसपिडालोमात्
आखेटे ऽस्मिन् रवानामिह किमु न किसम्पत्र बो यविरूपम् ॥ २५॥ 26) तनुरपि यदि लमा कीटिका स्यारीरे
भवति तरलचक्षुाकुलो यः स लोका। कथमिह मृगयातानन्दमुखातलो
मृगमकृतविकार शावालो ऽपि दन्ति ॥ २६ ॥ 27 ) यो येनैव हतः स हि दुशोहम्स्येव यैञ्चितो
नूनं पश्यते स तानपि भृशं जम्मान्तरे ऽप्यत्र । स्त्रीबालादिजनादपि स्फुटमिदं शाबादपि सूयते
निस्य पश्चनहिंसमोसनविधौ लोकार कुतो मुहात ॥२७॥ किलक्षणा मगर। या दुर्दैहै कविता दुर्देहम्मेव शरीरमेव वित्तं धनं यस्याः सा दुर्दे कविता । धुनः सिक्षणा मृगी । बनमधिवसति वन तिष्ठति । पुनः किलामा मृगी। प्रातृसंवन्धहीला रक्षारहिता । यस्यां मृगवनितायाम् । खभावात् मीतिर्मय स्तंते। पुनः किलक्षणा मनी । दशनकृततृणा दक्षनेषु त तृणं यया सा दक्षनभूततृणा । सा मृगी कस्यापि अपराध न करोति ॥ २५॥ यदि चेत् । सनुरपि समापिकीटिका पिपीलिका । शरीरे रूमा स्यात् तदा । यः अयं लोकः व्याकुल: तरलनाः पन्नल रष्टिः भवति स लोकः । इह जगति संसारे। उत्खातशत्रः नाशनः । मातविकार मृग कथं हन्ति । मृगया आखेटककृत्या आमानन्द प्राप्तानन्दं यथा स्वात्तबा। शाताखोऽपि लोकः अकृतविकारं भूर्ग इन्ति ॥ २६॥ यः कचित् । येन पुंसा पुरुषेण हतः । एव निश्वयेन हि यतः पुमान् । हन्तारं नरम् । बहुशः बहबारान् । इन्ति । यःमनुष्यः। यःकषित् । वचिता छविगतः । स पुमान् । तान् याकान् । अत्र कोके । शमत्यर्थम् । जन्मान्तरे परजन्मनि । बहुशः बहुवारान् । यस यते । इद
मालाविजनात शाखादपि भयते । इति मत्ता। भो लोकाः निर्स सदा । बबनसिनोजानाविधौ । कुतो मापस जिसके स्वभावसे ही भय रहता है, तथा जो दातोंके मध्यमें तृणको धारण करती हुई अर्थात् घास खाती हुई किसीके अपराधको नहीं करती है। आश्चर्य है कि वह भी मृगकी स्त्री अर्थात् हरिणी मांसके पिण्डके लोभसे जिस मृगया व्यसनमें शिकारियोंके द्वारा मारी जाती है उस मृगया (शिकार) में अनुरक्त हुए जोंके इस लोकमें और परलोकमें कौनसा पाप नहीं होता है ! ॥ विशेषार्थ- यह एक प्राचीन पद्धति रही है कि जो शत्रु दांतोंके मध्य में तिनका दमाकर सामने आता था उसे वीर पुरुष विजित समझकर छोड़ देते थे, फिर उसके ऊपर वे शखप्रहार नहीं करते थे। किन्तु खेद इस बातका है कि शिकारी जन ऐसे भी निरपराध दीन मृग आदि प्राणियोंकर घात करते हैं जो घासका भक्षण करते हुए मुखमें तृण दबाये रहते हैं । यही भाव 'दशनधृतवृणा' इस पदसे अन्धकारके द्वारा यहां सूचित किया गया है ॥२५ ।। जब अपने शरीरमें छोटा-सा भी बीटी मादि कीड़ा लग जाता है तब वह मनुष्य व्याकुल होकर चपल नेत्रोंसे उसे इधर उधर ढूंढ़ता है। फिर वही मनुष्य अपने समान दूसरे प्राणियोंके दुःखका अनुभव करके मी शिकारसे प्राप्त होनेवाले आनन्दकी खोजमें कोधादि विकारोंसे रहित निरपराध मृग आदि प्राणियोंके ऊपर शस्त्र चल कर कैसे उनका वष करता है ! ।।२६ ॥ जो मनुष्य जिसके द्वारा मारा गया है वह मनुष्य अपने मारनेवाले उस मनुष्यको भी अनेकों वार मारता ही है। इसी प्रकार जो प्राणी जिन दूसरे लोगोंके द्वारा ठगा गया है वह निश्चयसे उन लोगोंको मी जम्मान्तरमें और इसी जन्ममें भी अवश्य ठगता है । यह बात स्त्री एवं नाला आदि जनसे तथा शास्त्रसे भी स्पष्टतया सुनी जाती है । फिर लोग हमेशा धोखादेही और हिंसाके छोड़नेमें
११ उखातदानः अकृतविकार।