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पयनन्दि-पञ्चविंशतिः
भोक गुरुके पाइप्रसादसे निर्मन्यताको प्राप्त कर लेनेपर | जिन्होंने शामरूप समुबको नहीं देता है कही
इलियसुख दुखरूप ही प्रतीत होता है । __मा मादि तीर्थभासों में बात करते हैं ५ मिन्यवाजम्य मानन्द के सामने इन्द्रियसुखका मनुष्करीम में गुद कर सकनेवाका कोई भी कारण भी नहीं होता है
तीर्थ सम्भव नहीं मोहके निमितसे होनेवाली मोक्षको भी भमिकामा प्राविका लेपन करनेपर मी सरीर सभावसः सिधिमें बाधक होती है
दुगन्धको ही धोखा है विपके चिम्तममें भौर तो मा, शरीरसे भी
मग जीव इस बामाको सुगम सुची हो । प्रीति नहीं रहती
२६. अनचर्याष्टक १-९, पृ. २६८ पुद नपसे तस मनिर्वचनीय है
मैथुन संसारिका कालो
। २४. शरीराष्टक १-८, पृ. २६० | मैथुनकर्ममें पामोंके रस रहनेसे रसे पार्म । शरीरके स्वभावका लिस्पण
हा जाता है ! । यदि मैथुन अपनी पीके भी साथ न होता
तो उसका पोंमें त्याग बों कराया जाता है २५. स्वानाष्टक १-८, पृ. २६४
पवित्र मैथुनसुल विकी जीवको बुराग मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण पारीह सदा मावि और
नहीं होता भारमा स्भावसे पवित्र है, पस एवं
पवित्र मैथुनमें ममुरागका कारण मोर ५ दोनों प्रकारसे ही ग्राम प्य है -१ मैथुन संयमका विधायक है सत्पुरुषोंका घाम विक है जो मिन्यायाविरुप मेधुनमें प्रवृत्ति पापके कारण होती है
सम्वन्तर मनको नष्ट करता है ३ | विषयसुख विपके सरह है समीचीन परमात्मारूप द्वीप में मान करना ही । इस समारकका निरूपम मुमुधु वनोंके लिये
दिया गया है