Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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-नीति वाक्यामृतम् ।
अर्थ-कौल (नास्तिकों) ने मद्यपान, मांसभक्षण, परस्त्री सेवन आदि दुष्कर्मों को धर्म कहा है परन्तु इनसे प्राणियों को नरक के भयानक दुःख भोगने पड़ते हैं । अतः विवेकियों को ये कार्य कदापि नहीं करने चाहिए । आचार्यों ने अधर्म के मूल मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम ही बताये हैं ।
आप्त, आगम और मोक्ष के साधक सप्त तत्वों में श्रद्धान नहीं करना मिथ्यात्व है । यशस्तिलक में आचार्य लिखते
अदेवे देवता बुद्धिमवते वतभावनाम् ।
अतत्त्वे तत्त्वविज्ञानमतोमिथ्यात्वमुत्सृजेत् ।। अर्थात् जिन रागी द्वेषी, मोही, अज्ञानियों में सत्यार्थ देव के लक्षण (सर्वज्ञता, वीतरागता, हितोपदेशिता) नहीं हैं उनको देव मानना, तथा मद्यपायी, मांसभक्षी आदि दुराचारियों को सदाचारी मानना एवं प्रतीति विरुद्ध तत्वों को मुक्ति के हेतु तत्त्व समझना मिथ्यात्व है । विवेकियों को इस कुबुद्धि का त्याग करना चाहिए । यदि इस मूढता को मनुष्य हठाग्रह से त्याग न करे तो शाह स्वयं का सर्वनाश करने वाला मिथ्यावृष्टि है । कहा भी है
तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत् कोऽपि सर्वथा ।
मिथ्यात्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ॥2॥ य.ति. धर्म मानकर नदी-नादों में स्नान करना, पाषाणों-बालू आदि के ढेर लगाना, पर्वत से गिरना, अग्नि प्रवेश करना, सागर की लहर लेना, पुत्र-धन-आरोग्य की कामना से रागी-द्वेषी-मोही देवी देवताओं की मान्यता करना, पाखण्डी जनों का आदर सत्कार करना, सूर्य, चन्द्र, गौ आदि की पूजा करना, देहली पूजना, वृक्षादि पूजना, पहाड़ों, कुए, तालाबादि की पूजा करना आदि घोर मिथ्यात्व है । दुर्गति का कारण होने से अधर्म है, उभय लोक का नाशक है, विषपान से भी भयंकर है मिथ्यात्व की उपासना। हालाहल विष एक ही भव में प्राणों का नाश करता है परन्तु मिथ्यात्व भव-भव में पीड़ा देता है । प्राणियों का नाश करता है। अज्ञान का लक्षणं
अश्वमेध, नरमेधादि यज्ञों के प्रतिपादक, मांसादि भक्षण से धर्म कहने वाले, हिंसादि पापों से स्वर्गादि फल प्राप्ति की चर्चा करने वाले, विकथाओं से भरे ग्रन्थों का पठन-पाठन, अध्ययन करना अज्ञान है । आत्म स्वरूप से भटका कर जिसके द्वारा विषय-कषायों का पोषण होता है वह समस्त अज्ञान या कुज्ञान है । संसार परिभ्रमण का कारण है। सर्वथा हेय-त्याज्य है । मुमुक्षुजनों को इसका पूर्णतः परिहार करना चाहिए । क्योंकि यह भी दुःख का मूल अधर्म है।
___ असंयम :- इन्द्रियों को अशुभ विषयों में प्रवृत्त करना, षट्काय के जीवों का रक्षण नहीं करना असंयम है। नीतिकारों ने इसके 3 भेद कहे हैं -
(1) मानसिक (2) वाचनिक और (3) कायिक ।
स्वतः की विद्या, बल, ऐश्वर्य, पूजा, कुल, जाति, प्रभुता आदि का अहंकार करना दूसरों के गुणों व वैभवादि की वद्धि में ईर्ष्या-द्वेष करना, पर का पराभव चिन्तन करना, चित्त में खेद उत्पन्न कराना, हर क्षण पर पीड़ा का भाव रखना आदि मानसिक असंयम है । अत: संयमियों को चित्त शुद्ध रखना अनिवार्य है।
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