Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( २० )
रचना की है । रामचन्द्र-चन्द्र के पहिले इसी प्रकार के 'दशरूपक' नामक एक ग्रम्य की रचना 'जय' कर चुके थे। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी की प्रतिद्वन्द्विता में लिखा गया प्रतीत होता है। इसकी
भूमि में राजनीति को प्रतिस्पर्धा की प्रेरणा रही हो तो भी कुछ प्राश्चर्य नहीं है । दशरूपककार धनजय मालव नरेश मुञ्ज के सभा पण्डित थे । रामचन्द्र गुरणचन्द्र गुर्जरेश्वर के पण्डित थे। गुजरात पोर मालवा राज्यों का सदा संघर्ष रहता था । उनमें दीर्घकाल तक युद्ध भी चलते रहे ये। इसलिए गौरव-प्राप्ति के हर क्षेत्र में दोनों राज्यों की प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण मालवाधीश के ग्राश्रय में निर्मित 'दशरूपक' की प्रतिस्पर्धा में इस नाटपदर्पण की रचना हुई हो, यह सर्वथा सम्भावित है। हम प्रागे यह देखेंगे कि नाटघवलकार मे प्रायः १३ स्थलों पर दशरूपककार के मत का उल्लेख किया है किन्तु एक भी स्थान पर उनका नामतः निर्देश नहीं किया है । 'अन्ये', 'केचित्' प्रावि सर्वनाम शब्दों से पूर्वपक्ष प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया है। पर उस दशरूपक वाले प्रकरण को प्रारम्भ करने के पहिले हम भरत के नाटकशास्त्र भौर नाट्यदर्पण के विषय में कुछ विचार कर लेना चाहते हैं । नाट्यदर्पण की रचना यद्यपि भरतमुनि के नाटयशास्त्र के भाधार पर की गई है किन्तु रामचन्द्र गुरणचन्द्र ने अनेक स्थलों पर भरतमुनि से अपना मत भेद प्रकट किया है। इस प्रकार के दो उदाहरण हम नीचे देते हैं
का वर्णन करते हुए नाटघदर्पणकार ने
"ग्रस्म च पूर्वरङ्गस्य प्रत्याहारादीन्यासारितान्तानि नवान्तर्जवनिकं गीतकादीनि 'प्ररोचनान्तानि च दश बहिर्जवनिकमङ्गानि प्रयोज्यानि 'पूर्वाचार्यः' लक्षितानि । प्रस्माभिस्तु . स्वतो लोकप्रसिद्धत्वात् तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वात् विविधदेवता परितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रतारणमात्रत्वादुपेक्षितानि । प्ररोचना तु पूर्व रङ्गाङ्गभूताऽपि नाट्ये प्रवृत्ती प्रधानमङ्गमिति लक्ष्यते ।”
१. तृतीय विवेक में 'प्ररोचना' लिखा है कि
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इसमें 'पूर्वाचार्यैः' पद से भरत मुनि का संकेत किया गया है। भरत मुनि ने पूर्व रङ्ग के १२ भङ्गों का विधान किया है। जिनमें से १ जवनिका के भीतर भोर दश जवनिका के बाहर किए जाते हैं। नाट्यदर्पणकार ने इनमें से केवल एक प्रङ्ग 'प्ररोचना' को लिया है, शेष १८ मङ्ग को छोड़ दिया है । उनके छोड़ देने के तीन कारण यहाँ दिखलाए है :
१. स्वतो लोकप्रसिद्धत्वात, २. तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वात् औौर ३. विविध देवता परितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रसारणमात्रत्वात् ।
२. इस स्थल पर नाटयदर्पणकार ने भरत मुनि से अपना मतभेद प्रकट किया है । इसी प्रकार का एक और स्थल भारती वृत्ति के विवेचन में माया है । वृत्तियों के निरूपण के प्रसङ्ग में नाट्यशास्त्र के २० वें अध्याय में निम्न श्लोक भाया है-
रौद्रे भयानके चैव विशेपारभटी दुर्घः । बीभत्से करुणे चैव भारती सम्प्रकीर्तिता ।।
[ नाटघशास्त्र २० - ६४ ]
इसके अनुसार केवल बीभत्स तथा करुण रसों में 'भारती वृति' का प्रयोग भरतमुनि को प्रभिप्रेत प्रतीत होता है । किन्तु उसी २०वें प्रध्याय में इसके पूर्व ४७वां श्लोक निम्न प्रकार माया है
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