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आध्यात्मिक क्षेत्र में - कर्म-विज्ञान की उपयोगिता ३३
पहलुओं से सत्य का अन्वीक्षण-सर्वेक्षण करता है। वह मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्यभाव को अपनाता है। उसकी प्रवृत्तियाँ तुच्छ, स्वार्थपरायण न होकर परमार्थ दृष्टि से युक्त होती हैं।
इस प्रकार सम्यक्त्व प्राप्त होने पर आत्मविकास की गति - प्रगति में वृद्धि हो जाती है। उसके परिणाम और भी विशुद्ध हो जाते हैं। रागद्वेष के बल का भी हास होने लगता है। इस कारण चारित्रमोहनीय कर्म की काल-सीमा कम होकर अल्पकालीन स्थिति रह जाती है और तब वह देशविरत (भाव- श्रावक) हो जाता है और आत्मविकास की साधना चालू रखकर अपने परिणाम अधिकाधिक विशुद्ध करता हुआ सर्वविरत ( भाव - मुनि) हो जाता है। इसके पश्चात् क्रमशः कर्मभार हलका करता हुआ या तो उपशम श्रेणी प्राप्त कर लेता है, या फिर क्षपक श्रेणी ( कर्मों को जड़मूल से क्षय करने) पर आरूढ़ हो जाता है। ऐसी ति में वह मोहनीय, ज्ञान- दर्शनावरण और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों का उन्मूलन करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है और अन्त में सर्वकर्मों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सवकर्मों तथा समस्त दुःखों से विमुक्त हो जाता है। यह सब साधक के कर्मक्षय के पुरुषार्थ पर निर्भर है । '
उपसंहार
निष्कर्ष यह है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मविज्ञान प्रारम्भ से अन्त तक आत्मविकास में पुरुषार्थ का प्रेरक, उपकारक और उपादेय बनता है। इसी को दूसरे शब्दों में कहें तो कर्मविज्ञान मानव को अन्धकार से प्रकाश को ओर, असत् से सत् की ओर एवं मर्त्यजीवन से अमृतमय जीवन की ओर ले जाता है। यही आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मविज्ञान की उपादेयता है।
१. योगदृष्टि समुच्चय के विवेचन में मनसुखलाल ताराचंद के प्रकाशित वक्तव्य के आधार पर
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