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उसने कहा दोनो स्त्रियों से कह दिया जाय कि जो उसके पति की सम्पत्ति है उसके और इस पुत्र के यो दोनों वस्तुओं के समान दो-दो भाग कर दिये जांय । पश्चात् जो भाग जिसको स्वीकार हो वह ले ले | यह बात सुनकर जो उपमाता होगी वह चुप रह जायगी । परन्तु जो बालक की माता होगी वह शीघ्र कह देगी कि मुझको तो सम्पत्ति भी चाहे न दी जाय परन्तु मेरे बालक को किसी भी प्रकार सुरक्षित रखा जाय । उसके दो विभाग किसी हालत मे न किये जांय । चाहे फिर उसे भी उपमाता का ही सौप दिया जाय । उसके जीवित रहने से किसी समय देख तो लूंगी। इस प्रकार से माता एवं उपमाता दोनो का पता लग जायगा । रानी की यह सम्मति राजा ने भी स्वीकार कर ली । उसने जा कर वैसा ही फैसला किया। रानी के कथनानुसार फैसला सुनाते ही बालक की माता और उपमाता का पता लग गया। तब तो राजा एवं राजसभा ने एक स्वर से रानी की बुद्धि की प्रशंसा की । उसी दिन से राजा और उसके दरबारियो के द्वारा रानी के भावी पुत्र का नाम सुमति रखने का निश्चय हुआ ।
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पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी के निर्वाण के नव्वे हजार करोड़ सागरोपम के पश्चात् कार्तिक कृष्णा १२ को कौशाम्बी नगरी के राजा, श्रीधर की रानी सुसीवा की कोख से भगवान् पद्म प्रभु छठे तीर्थ कर का जन्म हुआ। आप उनतीस लाख पूर्व तक गृहस्थाश्रम में रहे । फिर अपने कौशम्बी के उपवन में जाकर कार्तिक कृष्णा ३१ को दीक्षा ग्रहण की, चैत्र शुक्ल १५
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