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जैन पूजान्जलि बाहा विषय तो मृग जलवत है उनमें स्त्रोत न शान्ति का ।
अन्तर्नभ में क्यों छाया है बादल मिथ्या प्रान्ति का ।। अनन्तानुबधी कषाय का नाश करूँ दो यह आशीष । मोहरूप मिथ्यात्व नष्ट कर दूं मैं समकित जल से ईश ।। देव शास्त्र गुरु पाँचो परमेष्ठी प्रभु विद्यमान जिन बीस । कृत्रिम अकृत्रिम जिनगृह वन्दू सर्व सिद्ध जिनवर चौबीस ।।१।। ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणोगेषु जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । अप्रत्यख्यानावरणी कषाय का नाश करूँ तत्काल । अविरति हर अणुव्रत लें समकित चदन से चमके निज भालादेव ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । मैं कषाय प्रत्यख्यानावरणी हर करूँ प्रमाद अभाव । पच महाव्रत ले समकित अक्षत से पाऊँशुद्ध स्वभाव ।।देव ॥३॥ ॐ हीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । प्रभु कषाय सज्वलन नाश कर पाऊँ मैं निज मे विश्राम । समकित पुष्प खिले अन्तर मे मैं अरहत बनें निष्काम ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । पाप पुण्य शुभ अशुभ आश्रव का निरोध करतू सवर । समकित चरु से कर्म निर्जराकर मैं बध हरूँ सत्वर देव ।।५।। ॐ ह्री श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । राग द्वेष सबका अभाव कर नो कषाय का करूँविनाश। सम्यकज्ञान दीप से स्वामी पाऊँ केवलज्ञान प्रकाश देव ।।६।। ॐ ह्री श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि ।। ज्ञानावरणादिक आठो कमों का नाश करूँ भगवन्त । समकित धूपसुवासित हो उर भवसागर का कर दूं अन्त ।।देव ॥७॥ ॐ ही श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि । गुणस्थान चौदहवों पाकर योग अभाव करूँ स्वामी । समकित का फल महामोक्ष पद पाऊँ हे अन्तर्यामी देव. ॥८॥ ॐही श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु महामोक्ष फल प्राप्ताय फल नि ।