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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास गई थी, इसलिए इसके प्रति उदासीन रहना उनके लिए संभव नहीं था। व्रजभाषा राजदरबारों और विद्वानों में प्रचलित तथा मान्य भाषा थी। इसमें अद्भत लालित्य और माधुर्य था। गुजरात में व्रजभाषा साहित्य की परिपाटी पहले से प्रचलित थी जिस पर स्वतंत्र रूप से कई विद्वानों ने काफी शोध किया है। इसलिए काव्य की यह मान्य भाषा थी। जो कवि व्रज प्रदेश के बाहर के थे जैसे ढूढाण आदि सटे क्षेत्रों के थे वे भी व्रजमिश्रित या व्रजभाषा में कविता करने में गौरव का अनुभव करते थे। इसलिए मरुगुर्जर मिश्रित व्रजभाषा, ढूढाणीवज या व्रजभाषा में अनेक रचनायें की गईं। ऐसे कवियों में विनोदीलाल, पांडे लालचंद, नथमल, दौलतराम, भूधरदास और मनोहरदास आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
जैन साधु स्थान-स्थान पर विहार करते रहते थे अतः उनकी भाषा क्षेत्रीयता की दीवार में अवरुद्ध नहीं होती। उनकी भाषा में देशज शब्दों, ध्वनियों, क्रियाओं और कारक चिह्नों का सम्मेलन सहज ढंग से हो जाता है। इसलिए ऐसे कवियों की भाषा में ब्रज के साथ राजस्थानी और गुजराती (मरुगुर्जर) का पुट स्वाभाविक है; जैसे कुण, सुण, घणे, पाणी, वैण, जाण, आपणो, स्यू, करसी, सुणिज्यो, हिरदा, जीवडा, पहुँता आदि शब्दप्रयोग बराबर मिलते हैं, यथा
पहती पीव पास ही जाई, सुणिज्यो प्रभु तुम चितलाई ।
हम कौन गुनहों तुम कीयौ, परण्या बिनिही दुष दीयौ ॥' ___कहीं-कहीं खड़ी बोली के व्याकरणिक प्रयोग और शब्द प्रयोग भी प्राप्त होते हैं। श के स्थान पर स का प्रयोग जैसे विसाल, सारद, सोग और ल के स्थान पर 'र' का प्रयोग जैसे बादर, मूर, घूर आदि देशज भाषा प्रयोग द्रष्टव्य है। 'ण' की अधिकता राजस्थानी प्रभाव के कारण है। संयुक्त वर्णों के सरलीकरण की प्रवृत्ति भी पाई जाती है जैसे श्वेत>सेत, यत्न>जतन, स्नेह>सनेह, मुक्ति> मुगति इत्यादि । जैनकवियों ने लोक प्रचलित तत्सम, तद्भव और देशज सभी प्रकार के शब्दों का सहज और समान रूप से प्रयोग किया है। कुछ अरबीफारसी के प्रचलित शब्द जैसे जहाँन, दरबार, गरीबनिवाज, दिल, हाजिरी, दुश्मन, खिदमतगार आदि भी मिल जाते हैं।
१. नेमिनाथ चरित-पद्य १०३
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