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न्यास, मुद्राएँ, यन्त्र, वक्र, मण्डल आदि
सैकोशटीका : श्री नडपाद कृत बौद्ध ग्रन्थ; गायकवाड सं० सी० में मेरियो ई० करेल्ली द्वारा
सम्पादित एवं अंग्रेजी में अनूदित ।
सौन्दर्यलहरी : शङ्कराचार्य द्वारा प्रणीत कही गयी है; बहुत-सी टीकाएँ हैं; सर जॉन वुड्रौफ द्वारा सम्पादित एवं अद्यार से प्रकाशित (१६३७ ); १६५७ का संस्करण गणेश एण्ड कम्पनी, मद्रास द्वारा तीन टीकाओं के साथ प्रकाशित | इसका एक संस्करण १०० श्लोकों में है ( ग्रन्थ, अंग्रेजी अनुवाद, प्रो० नार्मन ब्राउन द्वारा, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस १६५८ ) |
(१६३७) द्वारा प्रकाशित; लेखक गुजरात
हंस विलास हंस मिट्ठू द्वारा प्रगोत; गायकवाड़ सं० सी० में विक्रम संवत् १७६४ ( = १७३८ ई० ) में फाल्गुन पूर्णिमा को उत्पन्न हुआ था । यह शुद्ध रूप से तांत्रिक ग्रन्थ नहीं है । तथापि कुलार्णव० ( पृ० ६८-७६), कौलरहस्य ( पृ० १०४), योगिनीतन्त्र ( पृ० १०३), शारदातिलक ( पृ० ८४-८५, १०५) जैसे तान्त्रिक ग्रन्थों का उद्धरण देता है । इसमें कई प्रकार के विषयों का उल्लेख यथा -- अलंकार शास्त्र, काम शास्त्र सम्बन्धी बातें आदि ।
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हे वा तन्त्र : डा० डी० एल० स्नेलग्रोव द्वारा सम्पादित एवं अनूदित (आक्सफोर्ड यूनि० प्रेस १६५६ ) ; दो भागों में । यह पुस्तक इस परिशिष्ट के छपते-छपते प्राप्त हुई है । यह एक मूल्यवान् तन्त्र - साहित्य है और इसका सम्पादन सुन्दर ढंग से हुआ है । भाग - १ ( १६५६ में प्रका० ) में भूमिका ( पृ० १-४६), अंग्रेजी अनुवाद ( पृ० ४७ - ११६), विषय ( पृ० १२१ - १२५ ), चित्र ( पृ० १२६-१२६), शब्द - भाण्डार ( पृ० १३१-१४१), अनुक्रमणिका ( पृ० १४२ - १६० ) ; भाग - २ में संस्कृत मूल एवं तिब्बती मूल, जो नेपाली पाण्डुलिपि (प्रो० टुच्ची द्वारा प्रदत्त ) पर आधृत है; पंडित कान्ह कृत योगरत्नमाला नामक टीका, जो एक प्राचीन बंगाली पाण्डुलिपि से ली गयी है । सम्पादक का कथन है कि हेवज्रतन्त्र ८वीं शती के अन्त में विद्यमान था और अद्वयवज्रसंग्रह एवं सेकोद्देशटीका ने इससे उद्धरण लिया है । साधनमाला सं० २२६ (आर
म्मिक दो श्लोक ) वज्र ( २।८।६-७ ) ही है। हेवज्रतन्त्र में वज्र का आह्वान ( हे वज्र ) । भाग - १ के पृ० ११ पर सम्पादक ने पूछा है कि योगी लोग अपने को बौद्ध कैसे कहते हैं जब कि वे योगिनी के आलिंगन में सम्बोधि की अनुभूति करते हैं ? भाग-१ के पृ० ७० पर जालन्धर, ओड्डियान एवं पौर्णगिरि को पीठ कहा मया है और अन्य उपपीठों, उपक्षेत्रों का उल्लेख है । हेवज्र में 'शक्ति' का उल्लेख नहीं हुआ है, प्रत्युत उसके स्थान पर 'प्रज्ञा' है। भाग-२ (श्लोक ११ - १५, पृ० ६८ ) में आया है कि किस प्रकार इस तन्त्र के अनुयायी 'मुद्रा' नामक नारियों से मैथुन करते थे और सिद्धि प्राप्त करते थे । भाग - १ के पृ० ५४ में एक कृत्य है, जिसके द्वारा किसी नवयुवती को वश में किया जाता है। भाग-२, पृ०२ में आया है— 'हैकारेण महाकरुणा वज्र ं प्रज्ञा च भष्यते । प्रज्ञोपामात्मकं तन्त्रं तन्मे निगदितं शृणु ।'
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